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आवश्यक निर्युक्ति
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इतनी समृद्धि के साथ वंदना करने जाऊंगा कि जैसी समृद्धि से किसी ने पहले वंदना न की हो।' राजा के मन की बात इन्द्र ने जान ली। उसने सोचा- 'यह बेचारा स्वयं को नहीं जानता।' राजा दूसरे दिन महान् जनसमुदय को साथ ले धूमधाम से दर्शन करने निकला । देवराज इन्द्र ऐरावत हाथी पर बैठकर वहां आया। उसने ऐरावत हाथी के आठ मुखों की विकुर्वणा' । प्रत्येक मुंह में आठ-आठ दांत, प्रत्येक दांत पर आठआठ पुष्करिणियां, एक-एक पुष्करिणी में आठ-आठ कमलों की विकुर्वणा की । प्रत्येक पद्म पर आठआठ पत्र, प्रत्येक पत्र पर बत्तीस प्रकार के दिव्य नाटक हो रहे थे । इन्द्र दिव्य समृद्धि' के साथ वहां आया। उसने ऐरावत पर बैठे-बैठे ही भगवान् को वंदना की। तब वह ऐरावत हाथी अग्र पैरों से भूमि पर बैठा। तब उस हाथी के दशार्ण पर्वत पर देवता के प्रसाद से अगले पैर उठे। इस कारण उस पर्वत का नाम 'गजाग्रपदक' हो गया। पूर्व निर्गत राजा दशार्णभद्र ने इन्द्र की देवर्द्धि को देखा। उसने विस्मित होकर अनिमेष दृष्टि से ऐरावत हाथी पर बैठे इन्द्र की शोभा को देखा। इन्द्र की ऋद्धि के समक्ष राजा की ऋद्धि एवं प्रभाव नगण्य जैसा लग रहा था। तब देवराज इन्द्र ने दशार्णभद्र को कहा - 'हे दशार्णभद्र ! क्या तुम नहीं जानते कि अर्हत् भगवान् महावीर देवेन्द्र, असुरेन्द्र एवं नागेन्द्र द्वारा पूजित हैं।' फिर भी तुमने यह कैसे सोचा कि भगवान् को ऐसी ऋद्धि दिखाऊं जैसी किसी अन्य की न हो। यह सुनकर राजा दशार्णभद्र लज्जित हो गया। उसने सोचा- 'इन्द्र जैसी ऋद्धि हमारे पास कैसे संभव है।' इसने धर्म का आचरण किया है तभी इसे इतनी ऋद्धि मिली है। 'मैं भी करूं, यह सोचकर वह प्रव्रजित हो गया।"
१११. असत्कार से सामायिक की प्राप्ति (इलापुत्र )
एक ब्राह्मण मुनियों के पास धर्म सुनकर अपनी पत्नी के साथ प्रव्रजित हो गया। वह उग्र संयम का पालन करने लगा परन्तु दोनों की पारस्परिक प्रीति नहीं छूटी। 'मैं ब्राह्मणी हूं' इस प्रकार वह साध्वी गर्व करती थी। दोनों मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए। वहां दोनों अपना आयुष्य भोगकर च्युत हुए ।
इलावर्द्धननगर में इला देवता का मंदिर था । उस देवता की पूजा एक सार्थवाही पुत्र की कामना से करती थी । देवलोक से च्युत होकर वह ब्राह्मण साधु का जीव उसी के यहां पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । उसका नाम इलापुत्र रखा गया। उस ब्राह्मणी का जीव गर्वदोष के कारण एक नटनी की कोख से पुत्री के रूप में उत्पन्न हुआ। दोनों ने यौवन में पदार्पण किया। एक दिन इलापुत्र ने उस नट- पुत्री को देखा । पूर्वजन्म के अनुराग से वह उसमें आसक्त हो गया। इलापुत्र ने उसकी मांग की और कहा मैं इसको प्राप्त करने के लिए इसके वजन जितना स्वर्ण देने को तैयार हूं। परन्तु नट-पिता ने यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि यह लड़की हमारी अक्षय निधि है। यदि तुम हमारी नटविद्या सीख लो और हमारे साथ घूमते रहो तो यह तुम्हें प्राप्त हो सकती है। इलापुत्र उनके साथ घूमने लगा। उसने नट-विद्याएं सीख लीं।
एक बार राजा ने विवाह के निमित्त नट- मंडली को अपने करतब दिखाने के लिए कहा। वेन्यातट पर गए । राजा ने अपने अन्तःपुर के साथ नटों के करतब देखे । इलापुत्र करतब दिखा रहा था। राजा की दृष्टि उसी कन्या पर टिकी हुई थी। उसने पूरा करतब देखा ही नहीं। खेल का एक भाग संपन्न हुआ ।
१. इन्द्र की ऋद्धि का वर्णन चूर्णि में बहुत विस्तार से है ।
२. आवनि. ५४७, आवचू. १ पृ. ४७५-४८४, हाटी. १ पृ. २३९, २४०, मटी. प. ४६८ ।
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