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________________ आवश्यक नियुक्ति ४४५ मुझे प्रव्रजित हो जाना चाहिए।' वह धर्मघोष आचार्य के पास प्रव्रजित हो गया। ग्यारह अंगों का अध्ययन कर वह घूमने लगा। कुतूहलवश उसने उस पात्री-खंड को अपने हाथ में ले रखा था। उसने सोचा-जो वस्तुएं अदृश्य हो गई हैं, उन्हें मैं देखूगा। वह घूमता हुआ उत्तर मथुरा में पहुंचा। वे सारे रत्न तथा कलश श्वसुर-कुल में चले गए थे। एक बार उत्तर मथुरा का वणिक् स्नान करते हुए गा रहा था तब वे सारे कलश आदि वहां आ गए थे। उसने उन्हीं से स्नान आदि किया। भोजनवेला में वे सारे भांड भी आ गए। उसने उन्हीं से पेट भरा। क्रम से और भी सारी चीजें आ गयीं। वह वणिक् साधु भिक्षा करता हुआ उस उत्तरमथुरा वाले वणिक् के घर में प्रविष्ट हुआ। वहां उस सार्थवाह की यौवनस्था पुत्री हाथ में पंखा लेकर बैठी थी। वह साधु उस भोजनपात्र को वहां देख रहा था। गृहस्वामी ने भिक्षा मंगवाई। भिक्षा लेने के पश्चात् भी वह साधु वहीं खड़ा रहा तब उसने पूछा- 'भगवन् ! आप इस लड़की को क्यों देख रहे हैं?' वह बोला- 'मेरा इस लड़की से कोई प्रयोजन नहीं है। मैं तो यह भोजनपात्र देख रहा हूं।' उसने फिर पूछा- 'यह तुम्हें कहां मिला?' गृहस्वामी बोला- 'यह तो दादेपरदादे से आया हुआ है।' साधु ने फिर पूछा- 'यथार्थ बात बताएं।' उसने कहा- 'एक बार जब मैं स्नान कर रहा था, तब यह स्नानविधि स्वयं उपस्थित हो गई। इसी प्रकार भोजन-विधि, श्रीगृह की परिपूर्णता, भूमिगत निधि आदि भी उपस्थित हो गए।' साधु बोला-'ये सब मेरे थे।' गृहस्वामी ने पूछा-'कैसे?' तब साधु ने स्नान आदि से लेकर सारा वृत्तान्त सुनाते हुए कहा- 'यदि विश्वास न हो तो इस भोजन-पात्र के खंड को देखो।' वह खंड उस त्रुटित पात्र के तत्काल चिपक गया। उसने अपने पिता का नाम बताया, तब उसने जान लिया कि यही उसका जामाता है। गृहस्वामी ने उठकर साधु का आलिंगन किया और रोने लगा। गृहस्वामी बोला- 'सारा धन यथावत् है। मेरी बेटी की भी आपके साथ सगाई की हुई है। धन के साथ इसको भी तुम स्वीकार करो। यह सुनकर साधु बोला-'कभी मनुष्य कामभोगों को पहले छोड़ता है और कभी कामभोग मनुष्य को पहले छोड़ते हैं।' यह सुनकर उत्तर मथुरावासी वणिक् ने सोचा-'ये कामभोग मुझे भी छोड़ेंगे।' इस विचार से वह विरक्त होकर प्रव्रजित हो गया। प्रस्तुत दृष्टान्त में एक को विप्रयोग से और दूसरे को संयोग से सामायिक का लाभ हुआ। १०८. व्यसन (कष्ट) से सामायिक की प्राप्ति दो भाई शकट पर बैठकर यात्रा कर रहे थे। शकट के चक्कों की वर्तनी में एक द्विमुख सर्प बैठा हुआ था। बड़े भाई ने यह देखकर कहा- 'शकट को पीछे ले चलो।' छोटा भाई शकट चलाता रहा। संज्ञी होने के कारण सर्प ने यह सुना। वह चक्के से मर गया। मरकर वह सर्प हस्तिनागपुर नगर में स्त्री रूप में उत्पन्न हुआ। बड़ा भाई मरकर उस स्त्री के उदर से पुत्ररूप में आया। वह उसे बहुत प्रिय था। दूसरा भाई भी उसी के पेट में पुत्ररूप में आया। उस स्त्री ने सोचा- 'यह क्या! एक शिला की भांति मैं इसे वहन कर रही हूं। गर्भपात कराने पर भी वह गर्भ विगलित नहीं हुआ।' जब उसने पुत्र का प्रसव किया तब दासी को बुलाकर कहा- 'इसे कहीं फेंक दो।' सेठ ने उस दासी को ले जाते हुए देख लिया। तब एक दूसरी दासी १. आवनि. ५४७, आवचू. १ पृ. ४७२-४७४, हाटी. १ पृ. २३८, मटी. प. ४६७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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