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________________ ४४४ परि. ३ : कथाएं कहता कि इस लोक में सात द्वीप एवं सात समुद्र हैं, इसके आगे द्वीप एवं समुद्र नहीं हैं। उस समय भगवान महावीर हस्तिनापुर में समवसृत हुए। भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए गौतम स्वामी ने अनेक लोगों के मुख से यह बात सुनी। इस संदर्भ में गौतम ने अपना संशय भगवान् के सामने रखा। देवता और मनुष्यों की सभा में भगवान् महावीर ने कहा- 'गौतम! जो शिव राजर्षि ने कहा है, वह मिथ्या है। इस तिर्यक् लोक में जंबूद्वीप आदि असंख्येय द्वीप तथा लवण समुद्र आदि असंख्येय समुद्र हैं।' यह बात सुनकर परिषद् प्रसन्न होकर भगवान् को वंदना कर वापस चली गयी। लोगों से भगवान् महावीर की बात सुनकर उसके मन में शंका उत्पन्न हो गयी और उसका विभंगअज्ञान पतित हो गया। उसने मन में सोचा-'भगवान् महावीर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं, वे सहस्राम्ब वन में विहरण कर रहे हैं। मैं जाऊं और भगवान् को वंदना करूं, यह इहलोक और परलोक के लिए हितकर होगा।' ऐसा सोचकर वह सब भंडोपकरण लेकर भगवान् महावीर के पास गया और वंदना-नमस्कार किया। भगवान् सेधर्म-देशना सुनकर उसे परम संवेग उत्पन्न हो गया। ईशानकोश की ओर अभिमुख होकर उसने तापस के उपकरण छोड़ दिए और स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया। फिर भगवान् के पास जाकर चारित्र स्वीकार किया और ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। विशुद्ध परिणामों से उसको केवलज्ञान की उत्पत्ति हो गई और वह सिद्ध बन गया। १०७. संयोग-वियोग से सामायिक की प्राप्ति दो मथुराएं थीं-दक्षिण मथुरा और उत्तर मथुरा। एक बार उत्तर मथुरा का वणिक् दक्षिण मथुरा में गया। वहां एक वणिक् उसके समान रूप रंग वाला था। उसने आगंतुक वणिक् का आतिथ्य किया। वे दोनों मित्र हो गए। उन्होंने सोचा, हमारी प्रीति स्थिर हो जाएगी यदि हम अपने पुत्र और पुत्री का जन्म होने पर उनका परस्पर विवाह-संबंध करेंगे तो। दक्षिणात्य वणिक् ने उत्तर वणिक् के घर में जन्मी बेटी को अपने बेटे के लिए ग्रहण कर लिया। कालान्तर में दक्षिण मथुरा का वणिक् कालगत हो गया। उसका स्थान उसके पुत्र ने ले लिया। एक बार वह स्नान करने बैठा। उस समय उसने चारों दिशाओं में चार स्वर्ण कलश स्थापित किए। उनके बाहर रूप्य कलश, उनके बाहर ताम्र कलश और उनके बाहर मृत्तिका के कलश स्थापित किए। दूसरी स्नान विधि की रचना की तब उसके पूर्व दिशा का स्वर्णिम कलश अदृश्य हो गया। क्रमश: चारों दिशाओं के स्वर्ण-कलश अदृश्य हो गए। इसी प्रकार एक-एक कर सभी प्रकार के कलश अदृश्य हो गये। ज्योंहि वह स्नान करके उठा उसका स्नानपीठ भी अदृश्य हो गया। उसमें अधृति उत्पन्न हो गई। जब वह घर में गया तब भोजनविधि का प्रारंभ हुआ। वहां स्वर्ण और रूप्यमय भाजन रखे गए। तब एक-एक भाजन अदृश्य होता गया। वह सबको अदृश्य होते हुए देख रहा था। जब उसकी मूलपात्री भी अदृश्य होने लगी तो उसने उसे पकड़ लिया। जितना वह पकड़ सका उतना टुकड़ा उसके हाथ में रह गया। शेष पात्री अदृश्य हो गई। तब वह श्रीगृह में गया, वह भी रिक्त था। जो भूमि में गढ़ा हुआ धन था, वह भी अदृश्य हो गया। जो आभूषण थे, वे भी नहीं रहे। जिनको धन ब्याज पर दिया गया था, वे भी कहने लगे- 'हम तुमको नहीं जानते।' जो दास-दासी वर्ग था, वह भी चला गया। तब उसने सोचा- 'अहो! मैं अधन्य हूं। १.आवनि. ५४७, आवचू. १ पृ. ४६९-४७२, हाटी. १ पृ. २३७, २३८, मटी. प. ४६६, ४६७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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