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आवश्यक नियुक्ति
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पुत्र का नाम पुष्पशालपुत्र था। उसने एक दिन माता-पिता से पूछा - 'धर्म क्या है ?' उन्होंने कहा- 'वत्स ! धर्म है माता-पिता की सेवा करना।' इस संसार में देवता दो ही हैं- माता और पिता । इसमें भी पिता विशिष्ट होता है क्योंकि माता उसके वशवर्ती होती है ।
अब वह प्रतिदिन प्रातः काल से माता-पिता की मुखधावन आदि सारी सेवाएं करने लगा। वह उनकी शुश्रूषा देवता की भांति करने लगा। एक बार ग्रामभोजिक उसके घर आया। माता-पिता ने उसका आतिथ्य किया। बालक ने सोचा- 'माता-पिता के लिए वह भी देवतुल्य है। मैं इसकी पूजा करूंगा तो धर्म होगा ।' उसने ग्रामभोजिक की शुश्रूषा भी शुरू कर दी। ग्रामभोजिक के लिए भोजिक देवतुल्य था और भोजिक के कोई दूसरा, उसके भी कोई अन्य, इस प्रकार शुश्रूषा करते-करते वह राजा श्रेणिक की शुश्रूषा करने लगा।
भगवान् महावीर राजगृह में समवसृत हुए। राजा श्रेणिक अपनी ऋद्धि के साथ वंदना करने लगा । तब पुष्पशालपुत्र ने भगवान् से कहा- 'मैं आपकी सेवा-शुश्रूषा करूंगा क्योंकि आप श्रेणिक के भी पूज्य हैं। ' भगवान् बोले- 'मैं रजोहरण और पात्र की पूजा-अर्चा करता हूं।' यह सुनकर पुष्पशालपुत्र संबुद्ध हो
गया।
१०६. विभंगज्ञान से सामायिक की प्राप्ति (शिवऋषि)
हस्तिनापुर नगर में शिव नामक राजा था। उसकी पत्नी का नाम धारिणी तथा पुत्र का नाम शिवभद्र था। राज्य की धुरा वहन करते हुए शिव राजा के मन में एक संकल्प उभरा - 'मेरे पूर्वजन्म के सुचीर्ण कर्मों का फल है, जिसके कारण मेरे भंडार में सोना, चांदी तथा धन-धान्य आदि बढ़ रहे हैं इसलिए अब मुझे पुनः पुण्यकर्म करना चाहिए। ऐसा सोचकर उसने दूसरे दिन विपुल भोजन बनवाया। लोगों को भोजन कराकर दान दिया और अत्यधिक समृद्धि व उत्सव के साथ शिवभद्र का राज्याभिषेक किया। फिर ताम्रमय तापस भाण्डों को बनवाकर उन्हें लेकर दिशाप्रोक्षित तापस बन गया । यावज्जीवन बेले- बेले की तपस्या में दोनों हाथ ऊपर उठाकर सूर्य की आतापना लेते हुए वह विहरण करने लगा । वह प्रथम बेले के पारणे के दिन आतापन भूमि से उतरकर वल्कल वस्त्रों को पहनकर, तांबे के बर्तनों को ग्रहण कर पूर्व दिशा की प्रेक्षा करता था। प्रेक्षा करके वह बोलता - 'पूर्व दिशा में सोम महाराज प्रस्थानप्रस्थित शिव राजर्षि की रक्षा करें। वहां जो हरियाली आदि हैं, उनकी आज्ञा दें।' ऐसा कहकर पूर्व दिशा में नीचे पड़े हुए कंद आदि को ग्रहण करता, उपलेपन, सम्मार्जन आदि करता, स्वच्छ जल ग्रहण करके दर्भ और वालुका से वेदिका की रचना करता, उसमें समिधा, काष्ठ आदि डालता, मधु, घृत आदि से अग्नि प्रज्वलित करता फिर अतिथि - पूजा करके स्वयं आहार ग्रहण करता। इसी प्रकार दूसरे बेले के पारणे में दक्षिण दिशा की प्रेक्षा करता और यम महाराज की आज्ञा लेता। तीसरे बेले के पारणे में पश्चिम दिशा की प्रेक्षा कर वरुण महाराज की आज्ञा ग्रहण करता। चौथे बेले के पारणे में उत्तरदिशा की प्रेक्षा करते हुए वैश्रमण महाराज की आज्ञा लेता। इस प्रकार बेले- बेले की तपस्या में दिशाचक्रवाल तपःकर्म के साथ सूर्याभिमुख होकर आतापना लेने से उसके तदावरणीय कर्मों के क्षयोपयशम से विभंगअज्ञान उत्पन्न हो गया। वह शिव राजर्षि हस्तिनापुर के लोगों को १. आवनि. ५४७, आवचू. १ पृ. ४६९, हाटी. १ पृ. २३७, मटी. प. ४६५, ४६६ ।
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