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________________ भूमिका आवश्यक निर्युक्ति अवचूर्णि टीका के बाद व्याख्या साहित्य में दीपिका, अवचूर्णि आदि की रचना हुई । आवश्यक निर्युक्ति पर भट्टारक ज्ञानसागर सूरि द्वारा अवचूर्णि लिखी गयी। हमने संपादन आदि में अवचूर्णि का प्रयोग नहीं किया है। पाठभेद के कारण कोई भी हस्तप्रति प्रतिलिपि होने पर भी हुबहू दूसरी प्रति से नहीं मिलती। प्रतियों में आए पाठान्तर के मुख्य चार कारण हैं - १. परम्परा - भेद २. लिपिदोष ३. मूलपाठ एवं व्याख्या ग्रंथ का सम्मिश्रण ४. प्राकृतिक एवं भौगोलिक कारण । भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा वाचनाएं हुईं अतः परम्परा भेद के कारण पाठभेद आना स्वाभाविक हो गया । आगमपाठ के लिए तो अनेक स्थानों पर 'नागार्जुनीयास्तु एवं पठंति' ‘केई तु एवं इच्छंति' आदि उल्लेख मिलते हैं। आवश्यक निर्युक्ति की हस्तप्रतियों में 'पाठान्तरं वा ' उल्लेख के साथ पाठभेद का संकेत है। ४९ जब तक मुद्रित प्रणाली प्रचलित नहीं थी, प्राचीन लोकप्रिय ग्रंथों की सैकड़ों प्रतिलिपियां करवाई जातीं थीं । आगमों एवं उनके व्याख्या-साहित्य की प्रतिलिपि करने वाले प्रायः वैतनिक होते थे, उन्हें भाषा का पूरा ज्ञान नहीं होता था। लिपि को पूरा न समझने के कारण भी पाठान्तरों की संख्या बढ़ जाती थी । क्षेत्रीय उच्चारण-भेद का प्रभाव भी लिपि पर पड़े बिना नहीं रहता था। जैसे मारवाड़ का व्यक्ति च को स कहता है और कहीं-कहीं लेखन में भी च के स्थान पर स लिख देता है । दृष्टिभ्रम, प्रमाद और अनवस्था के कारण भी पाठ में अशुद्धि एवं पाठभेद हो गए। मात्रा न लगाने के प्रमाद से अर्थभेद एवं पाठभेद हो गया । उदाहरणार्थ 'पुव्वुद्दिट्ठो उ विही' के स्थान पर 'पुव्वुद्दिट्ठो उवही' गया। हस्तप्रति में शब्दों को तोड़े बिना लिखा जाता है अत: 'उ विही' के स्थान पर 'उ वही' हो गया। इन पाठभेदों से मूल अर्थ में महान् परिवर्तन आ जाता है। टीका एवं पूर्वापर संबंध के बिना ऐसे पाठभेदों को समझना अत्यन्त कठिन होता है । विराम या अर्द्धविराम चिह्न न होने से तथा खड़ी मात्रा लगने से भी हस्तप्रतियों में पाठभेदों की संख्या बढ़ गई। विकृति एवं पाठभेद का एक बहुत बड़ा कारण है - अन्य पाठों का प्रक्षेपण । प्राचीन काल में आगमों को कंठस्थ करने की परम्परा थी। उनकी व्याख्याएं भी साथ में कंठस्थ रहती थीं। कुछ संवादी या विषय से सम्बद्ध गाथाएं कालान्तर में एक दूसरे ग्रंथ के मूल पाठ के साथ जुड़ जाती थीं । आवश्यक निर्युक्ति में भाष्य की अनेक गाथाएं मिल गई हैं। आवश्यक निर्युक्ति में ऐसे प्रक्षेप प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। लिखते समय संक्षेपीकरण की मनोवृत्ति से भी पाठभेद की परम्परा चल पड़ी। एक जैसे पाठ वाली गाथाओं को लिपिकार संकेत करके छोड़ देते थे जिससे कालान्तर में प्रसंग का ध्यान न रहने से वहां से वह गाथा लुप्त हो जाती थी । कहीं-कहीं पाठभेद का कारण आचार्यों द्वारा शब्द-परिवर्तन या पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग भी है । अनेक स्थलों पर पर्यायवाची शब्द को प्रकट करने वाले पाठान्तर मिलते हैं जैसे- 'मयगहणं आयरिओ'' का पाठभेद 'इच्छागहणं गुरुणो' मिलता है। यद्यपि दोनों का भावार्थ समान है पर पाठ में पूरा परिवर्तन है। आज यह निर्णय कर पाना कठिन है कि मूल पाठ कौन-सा था और बाद में प्रक्षिप्त पाठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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