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________________ आवश्यक निर्युक्त पाठान्तर का एक बहुत बड़ा कारण प्राकृत भाषा में लचीलापन तथा उसका लोकभाषा के साथ जुड़ना है। अलग-अलग प्राकृत भाषाओं का प्रभाव पाठों में आने से उसमें अनेक पाठान्तर आ गए। भाषाविदों के अनुसार प्राचीन अर्धमागधी प्राकृत संस्कृत भाषा के निकट थी । व्यञ्जन का लोप होकर यकार - श्रुति की प्रवृत्ति कम थी पर समय के अंतराल से उच्चारण लाघव हेतु हेमचन्द्र की प्राकृत व्याकरण की कार - श्रुति का प्रभाव आगम एवं उसके व्याख्या - साहित्य में आने लगा । वर्णसाम्य की त्रुटि भी पाठान्तर का कारण बनती है। कभी-कभी लिपि को पूर्ण रूप से नहीं जानने के कारण अनुमान का सहारा लेकर भी लिपिक कई शब्द लिख देते थे । कुछ व्यञ्जन समान लिखे जाने के कारण उनका भेद करना कठिन होता है । जैसे च व तन ठ व म स दव फक ए प घध ज्झच्छ कहीं-कहीं वर्णसाम्य के कारण अनवधानता से लिपिकारों द्वारा बीच का एक वर्ण छूट गया जैसे अववाय के स्थान पर अवाय, आययण के स्थान पर आयण, सममणइ के स्थान पर समणइ आदि । वर्ण-विपर्यय या व्यत्यय के कारण भी पाठों में विकृति का समावेश हो गया। जैसे- बितिओ > तिबिओ, अहिगारो अहिरागो, अहवा> अवाह, मूलदेवो देवमूलो, मय यम, मामगं मागमं आदि । व्यञ्जन ही नहीं स्वर संबंधी विपर्यय एवं परिवर्तन से होने वाली विकृतियां भी प्रतियों में मिलती हैं। जैसे - मुणी मणी, अइसेसी अइसीसा, महुर मुहर आदि । > > कहीं-कहीं लिपिकार के अनध्यवसाय या दृष्टिदोष से भी पाठ में बहुत अंतर आ गया। अनेक स्थानों पर प्रथम गाथा की प्रथम लाईन तथा दूसरी गाथा की दूसरी लाईन लिखकर नम्बर लगा दिए हैं, बीच की दो लाइनें छूट गयीं अथवा गाथाएं आगे पीछे स्थानान्तरित करके लिख दी गयीं। आवश्यक निर्युक्ति की हस्तप्रतियों में अनेक स्थानों पर गाथाओं का क्रमव्यत्यय मिलता है। ५० कौन सा है। निर्युक्ति-साहित्य में ऐसे पाठान्तर अनेक स्थलों पर मिलते हैं। 1 प्राकृतिक कारणों से भी प्रति के पाठों का लोप एवं उनमें विकृति का समावेश हो गया। दीमक लगने से, सीलन से अथवा असावधानी से प्रति के किनारे का भाग फटने से भी पाठ की सुरक्षा नहीं हो सकी। कभी-कभी लेखक अपने जीवन काल में ही अपनी कृति का परिमार्जन एवं संशोधन कर देता है। पुरानी और नयी प्रति का भेद न होने से कालान्तर में वे ही पाठभेद के कारण बन जाते हैं। आवश्यक नियुक्ति की प्रतियों में भी पाठभेद के इन कारणों का प्रभाव मिलता है। अनेक प्रतियों में लिपिकार स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने के लिए प्रति के अंत में निम्न श्लोक लिख देते थे Jain Education International तू त्त त्थ> च्छ न्त त्त यादृशं पुस्तके दृष्टं, तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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