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________________ ४८ आवश्यक नियुक्ति मलयगिरि ने व्यवहार एवं उसके भाष्य जैसे बृहद् ग्रंथ पर टीका लिखी लेकिन आवश्यक पर उनकी अधूरी टीका मिलती है। दूसरे आवश्यक चतुर्विंशतिस्तव की १०९९ गाथा तक की टीका उन्होंने लिखी है। ११०० वीं गाथा के पूर्वार्द्ध की व्याख्या मिलती है, उसके बाद साम्प्रतमरः अर्थात् अब अरनाथ का उल्लेख है, ऐसा संकेत है। आगे न गाथा का उत्तरार्ध दिया हुआ है और न ही उसकी कोई व्याख्या है। लगता है जीवन के सान्ध्यकाल में उन्होंने यह टीका लिखनी प्रारम्भ की और वह अधूरी रह गयी। आवयश्क नियुक्ति पर लिखी गयी उनकी टीका अनेक रहस्यों को खोलने वाली है। व्याकरण संबंधी अनेक विमर्श भी टीकाकार ने प्रस्तुत किए हैं। अनेक कथाएं जो आचार्य हरिभद्र की टीका एवं चूर्णि में स्पष्ट नहीं हैं लेकिन मलयगिरि की टीका में विस्तार से दी हुई हैं। यद्यपि मलयगिरि ने भी चूर्णि से ही कथाओं को उद्धृत किया है लेकिन अनेक अस्पष्ट स्थलों पर उसे विस्तार देकर स्पष्ट भी किया है। अपनी टीका में उन्होंने आवश्यक पर लिखे मूलभाष्य की गाथाओं की भी व्याख्या की है। आवश्यकनियुक्ति दीपिका यह व्याख्या आचार्य माणिक्यशेखरसूरि कृत है। इसे टीका के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता क्योंकि टीका में लगभग प्रत्येक शब्द की विस्तृत व्याख्या की जाती है। दीपिका जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है, आवश्यक नियुक्ति पर विशेष रूप से लिखी गयी है। आवश्यक नियुक्ति का संक्षिप्त अर्थ समझने में यह अत्यंत उपयोगी है। इसमें कथानकों का सार संस्कृत भाषा में अत्यंत संक्षिप्त शैली में प्रस्तुत किया है। कोई-कोई कथा तो दीपिका से ही स्पष्ट हो सकी है, जैसे-वैनयिकी बुद्धि के अन्तर्गत अर्थशास्त्र (राजनीति) की कथा। दीपिकाकार ने ग्रंथ के प्रारंभ में भगवान् महावीर एवं अपने गुरु मेरुतुंगसूरि को नमस्कार किया है। ग्रंथ के प्रारंभ में आचार्य संकल्प व्यक्त करते हुए कहते हैं-'श्रीआवश्यकसूत्रनियुक्तिविषयः प्रायो दुर्गपदार्थः कथामात्रं नियुक्त्युदाहृतं च लिख्यते" इससे स्पष्ट है कि उन्होंने कठिन शब्दों की ही व्याख्या की है। __ग्रंथ के प्रारंभ में मंगलाचरण के रूप में नंदी सूत्र के प्रारंभ की लगभग ५० गाथाओं की व्याख्या है। उन्होंने अन्य ग्रंथों पर भी टीकाएं लिखी हैं। इनका समय पन्द्रहवीं शताब्दी के आसपास का है। दीपिका के अंत में लिखी प्रशस्ति के आधार पर ज्ञात होता है कि ये अंचलगच्छीय महेन्द्रप्रभसूरि के शिष्य मेरुतुंगसूरि के शिष्य थे। आवश्यकटिप्पणकम् यह ग्रंथ न व्याख्या रूप है और न टीका रूप ही। इसमें क्लिष्ट एवं दुर्बोध शब्दों का स्पष्टीकरण किया गया है। इसमें प्रचुरमात्रा में देशीशब्द एवं उनका स्पष्टीकरण मिलता है। यह व्याख्या ग्रंथ परिभाषात्मक अधिक है। अनेक महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों की परिभाषाएं इसमें मिलती हैं। इसके लेखक मलधारी हेमचन्द्र ने इसका 'आवश्यक टिप्पण' नाम का उल्लेख किया है। लेकिन प्रशस्ति में 'आवश्यकवृत्तिप्रदेशव्याख्यानकम्' नाम का भी उल्लेख मिलता है। यह आचार्य हरिभद्र कृत वृत्ति पर आधारित है अतः इसे हारिभद्रीयावश्यकवृत्ति टिप्पणक भी कहते हैं। १.देखें कथा सं. १८१। २. दीपिका प.१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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