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________________ भूमिका इसी प्रकार– 'मूलटीकाकारेण भवनपतिदेवीप्रभृतीनां स्थानं निषीदनं वा स्पष्टाक्षरैर्नोक्तम्यह उल्लेख भी चूर्णि की ओर संकेत करता है, वहां समवसरण में भवनपति आदि देवियों के बैठने के स्थान का स्पष्टता से उल्लेख नहीं है। हारिभद्रीया टीका ____ आचार्य हरिभद्र जैन आगमों के प्रथम टीकाकार हैं। आचार्य हरिभद्र के जीवन से संबंधित अनेक घटना-प्रसंग हैं। उन्होंने अनेक ग्रंथों पर टीकाएं लिखीं पर उनमें आवश्यक एवं उसकी नियुक्ति पर लिखी गयी टीका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। हरिभद्र ने इस टीका में मूल भाष्य की गाथाओं की भी व्याख्या की है। टीका का प्रयोजन बताते हुए वे कहते हैं ___ यद्यपि मया तथान्यैः कृतास्य विवृत्तिस्तथापि संक्षेपात्। तद्रुचिसत्त्वानुग्रहहेतोः क्रियते प्रयासोऽयम्॥ __इस उल्लेख से स्पष्ट है कि इस टीका से पूर्व उन्होंने तथा किसी अन्य आचार्य ने एक बृहद् टीका का निर्माण किया था, जो आज हमारे सामने उपलब्ध नहीं है। बृहद् टीका लिखने के बाद उन्होंने यह संक्षिप्त टीका लिखी। हरिभद्र ने यह टीका वैदुष्यपूर्ण लिखी है। उन्होंने नियुक्तिगाथाओं के अनेक पाठान्तरों का उल्लेख किया है साथ ही अनेक गाथाओं के बारे में विमर्श भी प्रस्तुत किया है, जैसे 'इयमन्यकर्तृकी गाथा सोपयोगा च।' अनेक स्थलों पर व्याकरण विमर्श भी प्रस्तुत किया है। यह टीका २२००० श्लोक प्रमाण है। टीकाकार ने अनेक स्थलों पर चूर्णि का अंश भी उद्धृत किया है। प्राकृत कथाओं का तो लगभग अंश चूर्णि से उद्धृत है। इस टीका के लिए टीकाकार ने शिष्यहिता' नाम का उल्लेख किया है। मलयगिरीया टीका आचार्य मलयगिरि महान् टीकाकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनके जीवन वृत्त के बारे में इतिहास में विशेष सामग्री नहीं मिलती और न ही उनकी गुरु-परम्परा का कोई उल्लेख मिलता है। ये आचार्य हेमचन्द्र के समवर्ती थे। इनका समय विद्वानों ने बारहवीं शताब्दी के आसपास का माना है। ___टीकाओं के अतिरिक्त उन्होंने एक शब्दानुशासन भी लिखा। शब्दानुशासन के प्रारंभ में वे 'आचार्यो मलयगिरिः शब्दानुशासनमारभते' का उल्लेख करते हैं। आगम ग्रंथों पर सरल एवं प्रसन्न भाषा में लिखी सहस्रों पद्य-परिमाण टीकाएं उनकी सूक्ष्ममेधा का निदर्शन है। मलयगिरि की टीकाएं मूलस्पर्शी अधिक हैं। अपनी टीका में उन्होंने लगभग सभी शब्दों की सटीक एवं संक्षिप्त व्याख्या प्रस्तुत की आचार्य मलयगिरि द्वारा विरचित आवश्यकनियुक्ति, नंदी, राजप्रश्नीय, पिंडनियुक्ति आदि २५ टीका ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। कर्मप्रकृति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि की टीकाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वे केवल आगमों के ही नहीं वरन् गणितशास्त्र, दर्शनशास्त्र एवं कर्मशास्त्र के भी गहरे विद्वान् थे। कहा जा सकता है कि टीकाकारों में इनका स्थान प्रथम कोटि का है। १. आवहाटी १ पृ. १५६। २. शिष्यहितायां कायोत्सर्गाध्ययनं समाप्तम्, समाप्ता चेयं शिष्यहितानामावश्यकटीका। ३. जैन साहित्य का बृहद इतिहास भाग. ३ पृ. ३८७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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