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आवश्यक नियुक्ति के अतिरिक्त और भी अनेक ग्रंथों पर टीकाएं लिखी हैं। अभयदेव सूरि इनके दीक्षा गुरु थे। विशेषावश्यकभाष्य पर लिखी इनकी वृत्ति का अपर नाम शिष्यहितावृत्ति भी है। उन्होंने इस टीका में सरल-सुबोध भाषा में दार्शनिक मंतव्यों को स्पष्ट किया है। इस टीका की विशेषता है कि स्वयं ग्रंथकार ने अनेक प्रश्नों को उठाकर उनका समाधान दिया है, जिससे सरसता आद्योपान्त बनी हुई है। इस टीका के माध्यम से विशेषावश्यक जैसे गंभीर ग्रंथ को पढ़ने में सुविधा हो गयी है अतः यह इस ग्रंथ की कुंजी कही जा सकती है। यह टीका राजा जयसिंह के राज्य में वि. सं. ११७५ को कार्तिक शुक्ला पंचमी के दिन समाप्त हुई। यद्यपि यह टीका अत्यन्त विस्तृत शैली में लिखी गयी है लेकिन बीच की सैकड़ों नियुक्ति गाथाओं एवं उनसे सम्बन्धित भाष्य गाथाओं की इसमें व्याख्या नहीं है। पंथं किर.... (आवनि १३१) से लेकर प्रथम गणधर की वक्तव्यता तक की गाथाएं इसमें अव्याख्यात हैं। इस का ग्रंथाग्र २८००० श्लोक परिमाण है। जिनदासकृत चूर्णि
नियुक्ति और भाष्य की भांति चूर्णि साहित्य का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि इसमें विस्तार से गाथाओं की व्याख्या की गयी है। यह संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में निबद्ध है। आवश्यक चूर्णि मुख्यतः नियुक्ति की व्याख्या करती है लेकिन कहीं-कहीं भाष्य गाथाओं की भी व्याख्या मिलती है। जिनदासगणि महत्तर ने अनेक ग्रंथों पर चूर्णियां लिखीं पर आवश्यक पर लिखी गयी चूर्णि परिमाण में बृहत्तम है। यह छहों आवश्यक पर लिखी गयी है। बीच-बीच में आचार्य ने अन्य ग्रंथों के उद्धरण भी दिए हैं। भाषा शैली की दृष्टि से भी यह चूर्णि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भरत की दिग्विजय, महावीर का जन्म कल्याणक, सनत्कुमार चक्रवर्ती आदि का वर्णन समासबहुल, विस्तृत एवं साहित्यिक शैली में किया गया है। इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण एवं अप्रचलित एकार्थक और देशीशब्दों का प्रयोग हुआ है। नियुक्ति में निर्दिष्ट कथाओं की विस्तृत व्याख्या चूर्णिकार ने की है। कथाओं की दृष्टि से यह अत्यंत समृद्ध ग्रंथ है। यह चूर्णि सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथ्यों की ओर संकेत करती है। चूर्णिकार ने प्रारंभ की गाथाओं की विस्तृत व्याख्या की है लेकिन बाद में अत्यंत संक्षिप्त शैली अपनाई है। इसमें चारों बुद्धि विषयक कथाओं का संकेत मात्र हुआ है। टीकाएं
टीकाएं चूर्णि से भी अधिक विस्तार से लिखी गयी हैं। आगम एवं नियुक्ति साहित्य के रहस्य को समझने में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। टीका साहित्य संस्कृत भाषा में लिखा गया है लेकिन कथा का विस्तार प्राकृत भाषा में है। टीकाकारों ने अधिकांश कथाएं चूर्णि से उद्धृत की हैं। आचार्य शीलांक आदि कुछ आचार्यों ने कथाओं को भी संस्कृत भाषा में ही निबद्ध किया है। मूल टीकाकार का उल्लेख आचार्य हरिभद्र ने अनेक स्थानों पर किया है। इस संदर्भ में हमारा अभिमत है कि वे चूर्णिकार को ही मूल टीकाकार के रूप में उल्लिखित करते हैं। आचार्य हरिभद्र कहते हैं- 'मूलटीकाकृताभ्यधायि-'असोगपायवं जिणउच्चत्ताओ बारसगुणं सक्को विउव्वइ।' १ चूर्णि में असोगपायवं के स्थान पर असोगवरपायवं पाठ है और पूरा पाट टीका से मिलता है। इससे स्पष्ट है कि मूलटीकाकार से हरिभद्र का तात्पर्य चूर्णिकार से था।
१. आवहाटी १ पृ. १५७।
२. आव २ पृ. ३२५।
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