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________________ आवश्यक नियुक्ति ४३३ चित्रांकन कर राजा प्रसन्नचन्द्र को दिखाया। तब महाराज प्रसन्नचन्द्र ने स्नेह के वशीभूत होकर लघुवयवाली गणिकाओं को ऋषि का रूप धारण कराकर उसके पास भेजा और कहा–'तुम वल्कलचीरी को विविध प्रकार के फलों के टुकड़ों से, मीठे वचनों से तथा शरीर के स्पर्श से लुभाओ। वे ऋषिवेश में आश्रम में गईं और ऋषि वल्कलचीरी को गुप्त रूप में विविध फलों से, मीठे वचनों से तथा सुकुमाल, पीवर और उन्नत स्तनों के पीलन रूप स्पर्श से उसे मोहित किया। उनमें लुब्ध होकर उसने उनके साथ जाने का संकेत दे दिया। जब वह अपने तापस उपकरणों को एकत्र संस्थापित करने के लिए वहां से गया तब वृक्ष पर आरूढ़ चारपुरुषों ने उन गणिकाओं को संकेत दिया कि ऋषि आ रहे हैं। वे गणिकाएं वहां से खिसक गईं। वल्कलचीरी उन गणिकाओं के मार्ग का अनुसरण करता हुआ आगे बढ़ने लगा। परन्तु उन्हें न देखकर अन्य मार्ग से चला और एक अटवी में पहुंच गया। अटवी में भटकते हुए उसने रथ में बैठे एक व्यक्ति को देखकर पूछा- 'तात! मैं तुम्हारा अभिवादन करता हूं।' रथिक ने पूछा- 'कुमार! तुम कहां जाना चाहते हो?' वह बोला- 'पोतन नामक आश्रम में जाना चाहता हूं। तुम कहां जाओगे?' रथिक बोला- 'मैं भी वहीं जा रहा हूं।' वल्कलचीरी उनके साथ चल पड़ा। वह रथिक की पत्नी को 'तात' इस संबोधन से संबोधित करने लगा। पत्नी ने रथिक से पूछा- 'यह कैसा उपचार-संबोधन?' रथिक बोला- 'सुंदरी! यह कुमार स्त्री-विरहित आश्रम में बड़ा हुआ है इसलिए यह विशेष कुछ नहीं जानता। इस पर कुपित नहीं होना चाहिए।' घोड़ों को देखकर वह बोला- 'तात! इन मृगों को रथ में क्यों जोता गया है?' रथिक बोला- 'कुमार! इस कार्य में ये ही लगाए जाते हैं, इसमें कोई दोष नहीं है।' रथिक ने कुमार को मोदक दिए। कुमार बोला- 'पोतन आश्रमवासियों ने भी मुझे पहले ऐसे ही फल दिए थे।' वे आगे बढ़े। मार्ग में एक चोर मिला। रथिक ने उसके साथ युद्ध प्रारंभ कर दिया। रथिक ने उस पर गाढ प्रहार किया। चोर उसकी युद्ध-शिक्षा से परितुष्ट होकर बोला-'हे वीर! मेरे पास विपुल धन है। तुम उसे ले लो।' तब तीनों ने रथ को धन से भर दिया। आगे चलते हुए वे पोतन नगर में पहुंचे। वल्कलचीरी को कुछ धन समर्पित कर उसे उदक की गवेषणा करने के लिए विसर्जित कर दिया। वह घूमता हुआ एक गणिका के घर में प्रविष्ट हुआ। गणिका बोली- “तात! मैं तुम्हारा अभिवादन करती हूं।' वल्कलचीरी बोला- 'इतना मूल्य लेकर मुझे उदक दो।' गणिका बोली- 'पहले मैं तुम्हें यहां निवास देती हूं।' उसने नापित को बुला भेजा। वल्कलचीरी नख-परिकर्म करवाना नहीं चाहता था। उसके वल्कल उतार दिए गए। उसको ज्योंहि स्नान कराने का उपक्रम किया गया, वह बोला-'मेरा ऋषिवेश मत उतारो।' तब गणिका ने कहा- 'जो यहां उदकार्थी आते हैं, उनके साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाता है।' फिर उसको स्नान करवाया और विशेष वस्त्र पहनाए। अनेक आभूषणों से उसको अलंकृत किया और गणिका की कन्या के साथ उसका पाणिग्रहण कर दिया। तब वे गणिकाएं वधूवर संबंधी गीत गाने बैठ गईं। ___ इधर कुमार वल्कलचीरी को लुब्ध करने के लिए ऋषिवेश में भेजी गई गणिकाएं भी वहां आ पहुंचीं। उन्होंने आकर राजा प्रसन्नचन्द्र से कहा- 'कुमार अटवी में चला गया। हम ऋषि के भय से उसे बुला नहीं सकीं।' यह सुनकर राजा विषण्ण हो गया। अहो! अकार्य हो गया। न कुमार पिता के पास ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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