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________________ ४३४ परि.३: कथाएं रह सका और न यहां ही आया। पता नहीं, उसके साथ क्या हुआ होगा? राजा चिंतातुर हो गया। इतने में ही उसके कानों में मृदंग की ध्वनि पड़ी। उसका मन दुःखी हो गया। उसने सोचा- 'मैं दु:खी हो रहा हूं। कौन दूसरा व्यक्ति इस प्रकार नृत्य-गीत से क्रीड़ा कर रहा है ?' गणिका को यह बात एक व्यक्ति ने कही। वह आई और प्रसन्नचन्द्र महाराज के चरणों में गिरकर बोली- 'देव! एक नैमित्तिक ने मुझे यह बताया था कि अमुक दिन, अमुक वेला में जो तरुण तापसवेश में तुम्हारे घर आए, उसे उसी समय अपनी दारिका दे देना, उसके साथ दारिका का विवाह कर देना। वह उत्तम पुरुष है। उसके साथ वह दारिका विपुल सौख्यभागिनी होगी। नैमित्तिक ने मुझे जैसा बताया था, वैसा तरुण आज मेरे घर पर आया। नैमित्तिक के कथन को प्रमाण मानकर मैंने अपनी दारिका उसे दे दी। उसके निमित्त यह उत्सव मनाया जा रहा है। मुझे ज्ञात नहीं था कि आपका कुमार भाग गया है। आप मेरा अपराध क्षमा करें।' राजा ने अपने आदमियों को भेजा। जिन लोगों ने कुमार को पहले उद्यान में देखा था, वे गए और कुमार को पहचान लिया। उन्होंने आकर राजा को प्रिय बात सुनाई। तब राजा स्वयं गणिका के घर गया। उसने चांद की भांति सोमलेश्या से युक्त कुमार को देखा। राजा का मन परम प्रीति से आप्लावित हो गया। वह वधूसहित कुमार को अपने प्रासाद में ले गया। सदृश कुल, रूप, यौवन आदि गुणों से युक्त कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ। राज्य का संविभाग प्राप्त कर कुमार वल्कलचीरी सुखपूर्वक रहने लगा। उस रथिक को चोर द्वारा प्रदत्त धन ले जाते हुए देखकर राजपुरुषों ने उसे चोर समझकर पकड़ लिया। राजकुमार वल्कलचीरी ने प्रसन्नचन्द्र को ज्ञात कराकर उसे मुक्त करवा दिया। इधर राजर्षि सोमचन्द्र कुमार को आश्रम में न देखकर शोकसागर में डूब गया। महाराज प्रसन्नचन्द्र द्वारा भेजे गए पुरुषों ने आकर कहा- 'हमने पोतनपुर में राजा के पास कुमार को देखा है।' यह सुनकर राजर्षि आश्वस्त हुआ। फिर भी प्रतिदिन कुमार की स्मृति करने के कारण वह अंधा हो गया। वह दयार्द्र ऋषियों के साथ वहीं आश्रम में रहने लगा। कुमार वल्कलचीरी को राजप्रासाद में रहते बारह वर्ष बीत गए। एक बार आधी रात बीत जाने पर वह जाग गया और अपने पिता के विषय में चिंतन करने लगा। उसने सोचा- 'मैं निघृण हूं। न जाने मेरे से विरहित मेरे पिता कहां हैं?' उसके मन में पिता के दर्शन की उत्सुकता जाग गई। प्रभात हुआ। वह महाराज प्रसन्नचन्द्र के पास जाकर बोला- 'देव! पिता को देखने की मेरी उत्कंठा जाग गई है। आप मुझे विसर्जित करें।' प्रसन्नचन्द्र ने कहा- 'हम साथ चलते हैं।' वे आश्रम में गए और राजर्षि से बोले- 'प्रसन्नचन्द्र प्रणाम करता है।' चरणों में लुठते प्रसन्नचन्द्र का राजर्षि ने हाथ से स्पर्श किया और कहा- 'पुत्र! नीरोग तो हो?' वल्कलचीरी ने प्रणाम किया। राजर्षि ने चिर समय तक उसे आलिंगित किया। आंखों से आसुओं की बाढ़ चल पड़ी। राजर्षि के नयन खुल गए। दोनों पुत्रों को देखकर राजर्षि परम संतुष्ट हुए। बीते समय की सारी बातें उनसे पूछी। कुमार वल्कलचीरी उटज में यह देखने के लिए गया कि राजर्षि पिता के तापसउपकरण प्रतिलेखित होते हुए किस स्थिति में हैं ? वह उटज में गया और अपने उत्तरीय के पल्ले से उनकी प्रतिलेखना करने लगा। अन्यान्य उपकरणों की प्रतिलेखना कर चुकने के पश्चात् ज्योंही वह पात्रकेसरिका की प्रतिलेखना करने लगा तो प्रतिलेखना करते-करते उसने सोचा- 'मैंने ऐसी क्रियाएं पहले भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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