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________________ ४३२ परि. ३ : कथाएं कालगत हो जाए तो कौन सी गति में जायेंगे ?' भगवान् बोले- 'सर्वार्थसिद्ध महाविमान में । ' श्रेणिक बोला- 'यह दो प्रकार का कथन कैसे ? तपस्वियों का नरक और देवगति में गमन एक साथ कैसे ?' भगवान् ने कहा- ‘ध्यान - विशेष से ऐसा होता है। इन ध्यान अवस्थाओं में उसकी ध्यान-संपदा ऐसी थी कि उसने असात और सात वेदनीय कर्मों का आदान किया।' श्रेणिक ने पूछा- 'भगवन् ! यह कैसे हुआ ?' भगवान् बोले- 'तुम्हारे आगे चलने वाले पुरुष के मुंह से अपने पुत्र का परिभव सुनकर मुनि ने प्रशस्तध्यान छोड़ दिया। जब तुम उसे वंदना कर रहे थे तब वह मुनि अपने अधीनस्थ अमात्यों से सेना के साथ युद्ध कर रहा था अतः उस समय वह अधोगति के योग्य हो गया।' तुम वहां से आगे बढ़ गए। तब मुनि प्रसन्नचन्द्र यान-करण आदि युद्ध-सामग्री की शक्ति से अपने आपको रहित जानकर, शीर्षत्राण से शत्रु पर प्रहार करूं यह सोचकर सिर पर हाथ रखा । लुंचित सिर पर हाथ रखते हुए उसने प्रतिबुद्ध होकर सोचा- 'अहो ! अकार्य! अहो! अकार्य! मैंने राज्य को छोड़ दिया । परन्तु यतिजनविरुद्ध मार्ग में प्रस्थित हो गया।' यह सोचकर मुनि अपने कृत्य की निन्दा गर्हा करता हुआ मुझे वंदना कर मूल स्थान में आरूढ़ होकर आलोचना-प्रतिक्रमण कर प्रशस्त ध्यान में संलग्न हो गया। उस प्रशस्तध्यान से मुनि ने सारे अशुभ कर्मों का नाश कर पुण्य अर्जित किया। इन दो काल-विभागों के आधार पर दो प्रकार की गतियों का कथन किया है। तब कोणिक ने सुधर्मा से पूछा - 'भगवन् ! प्रसन्नचन्द्र बालकुमार को राज्य सौंपकर कैसे प्रव्रजित हो गया? यह वृत्तान्त मैं सुनना चाहता हूं।' तब सुधर्मास्वामी बोले- 'पोतनपुर का राजा सोमचन्द्र अपनी पटरानी धारिणी के साथ गवाक्ष में बैठा था । रानी राजा के केशों को संवार रही थी ।' उसने श्वेत केश को देखकर कहा - 'स्वामिन्! दूत आ गया है।' राजा ने चारों ओर देखा । उसे कोई दूसरा व्यक्ति दिखाई नहीं दिया तब वह बोला- 'देवी! तुम्हें दिव्यचक्षु प्राप्त हैं।' तब रानी ने राजा को सफेद केश दिखाते हुए कहा'राजन् ! यह धर्मदूत है।' यह देखकर राजा का मन खिन्न हो गया। यह जानकर देवी बोली- 'क्या आप वृद्धत्व के भावों से लज्जित हो रहे हैं ? पटहवादन से इस वृद्धत्व का निवारण करवा लो।' राजा बोला'देवी! ऐसी कोई बात नहीं है। कुमार अभी बालक है। वह प्रजापालन में असमर्थ है - यह सोचकर ही मेरा मन खिन्न हुआ है। मैंने अपने पूर्वजों के मार्ग का अनुसरण नहीं किया, यही विचार मुझे खिन्न कर रहा है। तुम कुमार प्रसन्नचन्द्र का संरक्षण करती हुई घर में ही रहो।' देवी ने इसको मानने से इन्कार कर दिया । तब राजा ने राज्य - परित्याग का निश्चय कर पुत्र को राज्यभार संभलाकर एक धायमाता तथा रानी के साथ दिशाप्रोक्षित तापस के रूप में दीक्षा ग्रहण कर ली। वह चिरकाल से शून्य आश्रम में निवास करने लगा। दीक्षित होते समय रानी गर्भवती थी। गर्भ वृद्धिंगत होने लगा। प्रसन्नचन्द्र के चारपुरुषों (गुप्तचरों) ने उसे यह बात बताई । समय पूरा होने पर रानी ने एक बालक को जन्म दिया। उसे वल्कल में रखने के कारण बालक का नाम वल्कलचीरी रखा। वह इसी नाम से प्रसिद्ध हो गया । विसूचिका रोग से ग्रस्त होकर रानी मर गई तब धामाता ने बालक को वनमहिषी के दूध से पालन-पोषण किया। कुछ ही समय के पश्चात् धामाता भी काल-कवलित हो गई। ऋषि रूप में सोमचन्द्र वल्कलचीरी के लालन-पालन में कठिनाई का अनुभव करता था। ज्यो-ज्यों बालक बड़ा होने लगा, महाराज प्रसन्नचन्द्र अपने गुप्तचरों से प्रतिदिन वल्कलचीरी के विषय में जानकारी प्राप्त करता रहता। जब बालक बड़ा हुआ तब चित्रकारों ने उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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