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________________ ४३१ आवश्यक नियुक्ति हुआ। भगवान् महावीर ने साधुओं की गोष्ठी में कामदेव की सहिष्णुता की प्रशंसा करते हुए श्रमणश्रमणियों को परीषह तथा उपसर्गों में दृढ़ रहने की प्रेरणा दी। जब कामदेव भगवान् की उपासना में पहुंचा तब भगवान् ने कहा-'निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति तुम्हारी आस्था को धन्य है।' भगवान् के वचनों से उसका उत्साह बढ़ा और अंत में वह मासिक संलेखना से मरण प्राप्त कर अरुणाभ विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ। १००. वल्कलचीरी गणधर सुधर्मास्वामी चंपा नगरी में समवसृत हुए। राजा कोणिक वंदना करने गया। उसकी दृष्टि मुनि जंबू पर पड़ी। उसका रूप-लावण्य देखकर वह विस्मित हुआ। उसने सुधर्मा से पूछा-'भगवन्! इस महती परिषद् में यह मुनि घृत से सिंचित अग्नि की भांति दीप्त और मनोहर है। इसका क्या कारण है ? मैं यह मानूं कि इसने पूर्वजन्म में शील का पालन किया, तपस्या की अथवा दान दिया, जिससे इसको ऐसी शरीर-संपदा प्राप्त हुई है?' सुधर्मा बोले-'राजन् ! सुनो। तुम्हारे पिता महाराज श्रेणिक ने भगवान् महावीर से प्रश्न पूछा तब महावीर ने कहा-एक बार मैं (महावीर) राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में ठहरा हुआ था। राजा श्रेणिक तीर्थंकर की उपासना करने के लिए अपने प्रासाद से निकला। उसके आगे-आगे दो पुरुष अपने-अपने कुटुंब की बात करते हुए चल रहे थे। उन्होंने एक मुनि को आतापना लेते हुए देखा। वह मुनि दोनों बाहुओं को ऊपर उठाए हुए एक पैर पर खड़ा था।' उनमें से एक बोला-'अहो! यह महात्मा ऋषि सूर्याभिमुख होकर आतापना ले रहा है। इसके स्वर्ग और मोक्ष तो हस्तगत ही मानना चाहिए।' दूसरे व्यक्ति ने मुनि को पहचान लिया। वह बोला-'क्या तुम नहीं जानते? यह महाराज प्रसन्नचन्द्र है। इसके कैसा धर्म? इसने बालक को राज्य देकर अभिनिष्क्रमण किया है। वह बाल-राजा मंत्रियों द्वारा राज्यच्युत कर दिया जाएगा। इसने राज्य का नाश कर डाला। न जाने इसके अन्त:पुर का क्या होगा?' ध्यान में व्याघात करने वाले इन वचनों को मुनि ने सुना और सोचा- 'अहो! वे अनार्य अमात्य मेरे द्वारा प्रतिदिन सम्मानित होते रहे हैं। अब वे मेरे पुत्र से विपरीत हो गए हैं।' यदि मैं वहां होता और वे इस प्रकार करते तो मैं उन पर अनुशासन करता। यह सोचते मुनि को वह कारण वर्तमान में घटित होने जैसा दिखाई देने लगा अतः वह मन ही मन उन अमात्यों के साथ युद्ध करने लगा। उसी समय तीर्थंकर के दर्शनार्थ प्रस्थित महाराज श्रेणिक वहां आए। मुनि को देखकर उसने विनयावनत होकर वंदना की और देखा कि मनि ध्यान में अडोल खडे हैं। उसने मन ही मन सोचा-'अहो! आश्चर्य है कि राजर्षि प्रसन्नचन्द्र में तपस्या का इतना सामर्थ्य है।' यह सोचता हुआ राजा श्रेणिक तीर्थंकर महावीर के पास पहुंचा। विनयपूर्वक वंदना कर उसने भगवान् से पूछा- 'भगवन् ! जिस समय मैंने अनगार प्रसन्नचन्द्र को वंदना की, उस समय यदि वे कालगत हो जाते तो उनकी कौनसी गति होती?' भगवान् बोले- 'सातवीं नरक।' श्रेणिक ने सोचा- 'मुनियों का नरक-गमन कैसे?' पुनः उसने भगवान् से पूछा-'भगवन्! प्रसन्नचन्द्र यदि अब १.आवनि. ५४५, आवचू. १ पृ. ४५४, ४५५, मटी. प. ४५७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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