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________________ ४२८ परि. ३ : कथाएं है।' आचार्य बोले- 'ऐसी बात नहीं है। यह बिना घृत के कभी आहार करता ही नहीं।' उन्होंने पूछा कि आपको घृत की प्राप्ति कहां से होती है? आचार्य बोले- 'हमारे यहां मुनि घृतपुष्यमित्र जितना चाहें उतना घृत ला देते हैं।' उनको विश्वास नहीं हुआ। तब आचार्य आर्यरक्षित ने उनसे कहा- 'आप दुर्बलिका पुष्यमित्र को अपने यहां आहार करवाओ।' उनको संबोध देने के लिए आचार्य ने दुर्बलिका पुष्यमित्र को उनके साथ भेज दिया। वे उन्हें प्रतिदिन स्निग्ध आहार देते। वह प्रतिदिन आगमों का पुनरावर्तन करता। उनका स्निग्ध आहार राख में डालने वैसा हुआ। अब वे उसे प्रचुर स्निग्ध आहार देने लगे। वे निर्विण्ण हो गए पर शरीर बलिष्ठ नहीं हुआ। उन्होंने कहा-अब आगमों का प्रत्यावर्तन मत करो। उसने आगम का प्रत्यावर्तन छोड़ दिया और अंत-प्रांत आहार करने लगा। उसका शरीर पहले जैसा ही बलिष्ठ हो गया। वे रक्तपट वाले उसको लेकर आचार्य के पास आए। आचार्य ने उन्हें धर्म का प्रवचन दिया। वे सभी श्रावक हो गए। उस गण में चार मुनि मुख्य थे-दुर्बलिका पुष्यमित्र, विन्ध्य, फल्गुरक्षित तथा गोष्ठामाहिल । विन्ध्य अतीव मेधावी था। सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ-इनको ग्रहण करने एवं धारने में समर्थ था परन्तु सूत्रमंडली में कुछ विस्मृत हो जाता था। क्रमश: सूत्रालापकों की स्मृति करते-करते उसका क्रम टूट जाता था। उसने आचार्य से कहा- 'मैं सूत्रमंडली में विषादग्रस्त हो जाता हूं, सूत्र भूल जाता हूं। विलम्ब से क्रम आने के कारण सूत्र स्मृतिपटल पर नहीं रहता। आप मुझे कोई वाचनाचार्य दें।' तब आचार्य आर्यरक्षित ने उसे दुर्बलिका पुष्यमित्र को वाचनाचार्य के रूप में दे दिया। दुर्बलिका पुष्यमित्र ने कुछेक दिनों तक वाचना दी। एक दिन वह आचार्य के पास आकर बोला-वाचना देते रहने से मेरे श्रुत की हानि होती है। मैंने ज्ञातिजनों के गृह में रहते उस श्रुत की अनुप्रेक्षा नहीं की है। इसलिए यदि मैं श्रुत का पुनरावर्तन नहीं करूंगा तो नौवां पूर्व नष्ट हो जाएगा। तब आचार्य ने सोचा-'जब परममेधावी इस शिष्य का श्रुत पुनरावर्तन के अभाव में नष्ट हो जाएगा तो दूसरों का तो कहना ही क्या? उनके तो वह श्रुत स्थिर रह ही नहीं सकता।' आचार्य आर्यरक्षित ने अतिशय उपयोग लगाया और जान लिया कि क्षेत्रानुभाव तथा कालानुभाव से पुरुषों की मति, मेधा और धारणा शक्ति परिहीन हो गई है। उनके अनुग्रह के लिए उन्होंने सूत्रविभाग के आधार पर अनुयोगों का पृथक्करण कर दिया। अतिगूढ नयविभागों को सुखपूर्वक ग्रहण करने के लिए यह उपक्रम किया। आचार्य आर्यरक्षित विहार करते हुए मथुरा में आए और वहां भूतगुफा में स्थित व्यंतर के मंदिर में ठहरे। इन्द्र महाविदेह क्षेत्र में गया तब सीमंधर स्वामी ने निगोद जीवों के विषय में विस्तार से बताया। इन्द्र ने पूछा-'भगवन् ! क्या भरतवर्ष में कोई ऐसे आचार्य हैं, जो निगोद के जीवों का वर्णन कर सकते हैं?' सीमंधर भगवान् बोले-'आचार्य आर्यरक्षित इनका वर्णन करने में समर्थ हैं।' इन्द्र तब स्थविर ब्राह्मण का रूप बनाकर आया। जब सभी मुनि इधर-उधर चले गए तब वह आचार्य के पास आकर वंदना करके बोला-'भगवन् ! मेरे शरीर में महान् व्याधि है। मैं भक्तप्रत्याख्यान करना चाहता हूं, इसलिए आप कृपा कर बताएं कि मेरा आयुष्य कितना है ?' पूर्वो की यविकाओं में आयुष्य की प्रज्ञापना है। आचार्य उपयुक्त हो गए। उन्होंने सोचा-'इस व्यक्ति का आयुष्य सौ, दो सौ, तीन सौ वर्ष का है।' यह भारत का मनुष्य नहीं है। यह विद्याधर अथवा व्यंतर है। ऐसा सोचते-सोचते आचार्य दो सागरोपम की स्थिति तक पहुंच गए। तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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