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________________ आवश्यक नियुक्ति ४२९ हाथ से भौहों को ऊपर कर कहा - 'तुम शक्र हो ?' तब ब्राह्मण वेशधारी देव ने सारा वृत्तान्त बताते हुए कहा- 'मैंने महाविदेह क्षेत्र में सीमंधर स्वामी के दर्शन किए थे। वहां मैंने निगोद के विषय में पूछा था। अब आपके मुख से निगोद जीवों का वर्णन सुनना चाहता हूं । आचार्य ने निगोद जीवों के विषय में बताया। शक्र परम संतुष्ट होकर बोला- 'भगवन् ! अब मैं जाऊं ।' आचार्य बोले- 'कुछ समय तक ठहरो । मुनिगण आ जाएं।' इन्द्र बोला- 'यह दुर्वृत्तान्त हो जाएगा कि आजकल इन्द्र आते हैं क्या ?' वह बोला- भंते! यदि आपके शिष्य मुझको देखेंगे तो वे अल्पसत्त्व होने के कारण निदान कर लेंगे। इसलिए मैं जा रहा हूं। आचार्य बोले- 'कोई निशान कर चले जाओ।' तब शक्र ने उस उपाश्रय का द्वार दूसरी दिशा में करके प्रस्थान कर दिया। मुनियों ने आकर उपाश्रय का द्वार देखा पर मिला नहीं। तब आचार्य बोले- 'इधर से आ जाओ ।' आचार्य ने उन्हें इन्द्र आगमन की बात बताई। शिष्य बोले- 'अहो ! हम उन्हें नहीं देख पाए। आपने उनको मुहूर्त्त भर के लिए क्यों नहीं रोका ?' आचार्य इन्द्र के शब्दों को दोहराते हुए बोले- 'आज के मनुष्य अल्पसत्त्व वाले होते हैं। वे मुझे देखकर निदान कर देंगे।' इसलिए यह चमत्कार कर इन्द्र चला गया। इस प्रकार आचार्य आर्यरक्षित देवेन्द्र वन्दित थे । एक बार वे विहार कर दशपुर नगर गए। उस समय मथुरा में एक अक्रियावादी उठा। वह कहता था किन माता है और न पिता । इस प्रकार वह नास्तिकवाद का प्रबल समर्थक था । अन्य कोई वादी वहां नहीं था। तब संघ ने साधुओं के एक संघाटक को आर्यरक्षित के पास भेजा। वे युगप्रधान थे। संघाटक ने आचार्य से सारी बात कही। वे वृद्ध थे अतः उन्होंने अपने मामा मुनि गोष्ठामाहिल को वहां भेजा । वह वादलब्धि से संपन्न था। वह मथुरा में गया और उसने वादी का निग्रह कर दिया। श्रावकों की प्रार्थना पर गोष्ठामाहिल ने वहीं वर्षारात्र बिताने का निश्चय कर लिया । आचार्य अब सोचने लगे- 'मेरे पश्चात् गणधारक कौन होगा ?' उन्होंने मन ही मन दुर्बलिका पुष्यमित्र को निर्धारित कर लिया। जो आचार्य का स्वजनवर्ग था, उनको गोष्ठामाहिल अथवा फल्गुरक्षित अभिमत था। तब आचार्य ने सबको बुलाकर दृष्टान्त देते हुए कहा - 'तीन घड़े हैं। एक चने से भरा है, दूसरा तेल से भरा है और तीसरा घृत से भरा है। उन तीनों को उल्टा करने पर जिस घट में चने भरे होंगे वे सारे नीचे गिर पड़ेंगे। तेल के घट को उल्टा करने पर कुछ तेल घड़े के लगा रह जाएगा। घी के घट को उल्टा करने पर कुछ अधिक घी घड़े से लगा रह जाएगा। इसी प्रकार आर्यों! दुर्बलिका पुष्यमित्र ने सूत्र अर्थ और तदुभय से मुझे चने के घट के समान कर दिया है। फल्गुरक्षित ने मुझे तेलघट के समान तथा गोष्ठामाहिल ने घृतघट के समान बना डाला है इसलिए अब सूत्र और अर्थ से समन्वित दुर्बलिका पुष्यमित्र तुम्हारे आचार्य हों। सबने उन्हें आचार्य रूप में स्वीकार कर लिया। तब आचार्य ने दुर्बलिका पुष्यमित्र से कहा- 'मैंने फल्गुरक्षित और गोष्ठामाहिल के प्रति जैसा बर्ताव किया, वैसा ही तुम भी उनके प्रति व्यवहार करना । ' उनसे भी कहा - 'जैसा व्यवहार तुम मेरे प्रति करते थे, वैसा ही व्यवहार तुम दुर्बलिका पुष्यमित्र के प्रति करना।' मेरे प्रति किसी ने उचित व्यवहार निभाया या नहीं, मैं उसके प्रति रुष्ट नहीं होता था । किन्तु दुर्बलिका पुष्यमित्र सहन नहीं करेगा, क्षमा नहीं करेगा। इसलिए निरंतर इनके प्रति जागरूक रहना । इस प्रकार दोनों वर्गों को संदेश देकर आर्यरक्षित भक्तप्रत्याख्यानपूर्वक पंडितमरण को प्राप्त कर दिवंगत हो गए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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