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परि. ३ : कथाएं बालक फिर बोल पड़े– 'हम सभी को वंदना करते हैं, केवल एक कटिपट्टधारी मुनि को छोड़कर।' वृद्ध मुनि बोला- 'तुम अपनी दादी-नानी को वंदना करो। मुझे और कोई वंदना करेगा। मैं कटिपट्टक नहीं छोडूंगा।' उस समय वहां एक मुनि ने भक्तप्रत्याख्यान किया था। आचार्य रक्षित ने कटिपट्टक के परिहार के लिए कहा- 'जो इस मृत मुनि के शव को वहन करेगा, उसे महान् फल होगा।' जिन मुनियों को पहले से ही समझा रखा था, वे परस्पर कहने लगे- 'इस शव को हम वहन करेंगे।' आचार्य का स्वजनवर्ग बोला'इसको हम वहन करेंगे।' वे आपस में कलह करते हुए आचार्य के पास पहुंचे। आचार्य बोले- क्या मेरे स्वजनवर्ग इस निर्जरा के अधिकारी नहीं हैं ? जो तुम लोग शव को वहन करने की बात कह रहे हो।' तब स्थविर ने आर्यरक्षित से पूछा- क्या इसमें बहुत निर्जरा है?' आचार्य बोले-'हां' तब स्थविर ने कहा कि शव का वहन मैं करूंगा। आचार्य बोले- 'इसमें उपसर्ग उत्पन्न होंगे। बालक नग्न कर देंगे। यदि तुम सहन कर सको तो वहन करो। यदि तुम सहन नहीं कर सकोगे तो हमारा अपमान होगा, अच्छा नहीं लगेगा।' इस प्रकार आचार्य ने स्थविर को स्थिर कर दिया। स्थविर बोला- 'मैं सहन करूंगा।' जब उसने शव को उठाया, तब उसके पीछे-पीछे मुनि उठे। बालकों ने एक बालक से कहा- 'इनका कटिवस्त्र खोल दो। उसने कटिवस्त्र खोलना शुरू कर दिया। दूसरे बालक ने कटिवस्त्र आगे करके डोरे से बांध दिया। वह लज्जित होकर भी शव का वहन करने लगा। उसने सोचा- 'पीछे से मेरी पुत्रवधुएं देख रही हैं। उपसर्ग है, किन्तु मुझे सहन करना है, इस दृष्टि से वह चलता रहा और पुनः उसी अवस्था में लौट आया।' स्थविर को बिना शाटक देख आचार्य ने पूछा-'अरे यह क्या?' स्थविर बोला- 'उपसर्ग उत्पन्न हुआ था।' आचार्य बोले- 'क्या दूसरा शाटक मंगवाएं?' स्थविर बोला-'अब शाटक का क्या प्रयोजन? जो देखना था, वह देख लिया। अब चोलपट्टक ही पहनूंगा।' उसे चोलपट्टक दे दिया गया।
वह स्थविर भिक्षाचर्या के लिए नहीं जाता था। आचार्य ने सोचा- 'यदि वह भिक्षाचर्या नहीं करेगा तो कौन जानता है, कब क्या हो जाए? फिर यह एकाकी क्या कर सकेगा? इसे निर्जरा भी तो करनी है। इसलिए ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे यह भिक्षा के लिए जाए। इससे आत्म-वैयावृत्य होगी। फिर यह पर-वैयावृत्य भी कर सकेगा।' एक दिन आचार्य ने मुनियों से कहा- 'मैं अन्यत्र जा रहा हूं। तुम सभी स्थविर के समक्ष एकाकी-एकाकी भिक्षा के लिए जाना।' सभी ने स्वीकार कर लिया। आचार्य ने दूसरे गांव जाते हुए साधुओं से कहा- 'स्थविर की सार-संभाल रखना।' आचार्य चले गए। सभी मुनि एकाकीएकाकी भिक्षा के लिए गए, भक्तपान ले आए और अकेले भोजन करने लगे। स्थविर ने सोचा- 'यह मुनि मुझे भोजन देगा, यह मुनि मुझे भोजन देगा।' परन्तु किसी ने भोजन नहीं दिया। स्थविर क्रुद्ध हो गया परन्तु कुछ बोला नहीं। मन ही मन सोचा-'आचार्य को कल आने दो। फिर देखना, इन मुनियों को क्या-क्या उपालंभ दिलाता हूं।' दूसरे दिन आचार्य आ गए। आचार्य ने स्थविर से पूछा- 'कैसा रहा?' स्थविर ने कहा- 'यदि तुम नहीं होते तो मैं एक दिन भी जीवित नहीं रह सकता। ये मेरे पुत्र-पौत्र जो मुनि हैं, उन्होंने भी मुझे कुछ आहार लाकर नहीं दिया।' तब आचार्य ने स्थविर के सामने उन सबकी निर्भर्त्सना की। उन्होंने उसे स्वीकार किया। आचार्य बोले-'लाओ पात्र! मैं स्वयं स्थविर पिता मुनि के लिए पारणक लेकर आता हूं।'
तब स्थविर ने सोचा-'आचार्य कहां-कहां घूमेंगे? ये कभी लोगों के समक्ष भिक्षा के लिए नहीं
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