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आवश्यक नियुक्ति
इधर आर्यरक्षित के माता-पिता पुत्र-शोक से विह्वल हो गए। उन्होंने सोचा- 'आर्यरक्षित उद्योत करने की बात कह रहा था परन्तु उसने तो अंधकार कर दिया।' उन्होंने आर्यरक्षित को बुलाने का संदेश भेजा परन्तु वह नहीं आया। तब उन्होंने छोटे भाई फल्गुरक्षित को भेजा और कहलवाया- 'तुम शीघ्र आ जाओ। यहां आओगे तो सभी सदस्य प्रवजित हो जायेंगे।' आर्यरक्षित को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने फल्गुरक्षित से कहा- 'यदि वे सब प्रव्रजित होना चाहते हैं तो पहले तुम प्रव्रजित हो जाओ।' वह प्रव्रजित हो गया। उसे अध्ययन कराया गया।
आर्यरक्षित दसवें पूर्व की यविकाओं का अध्ययन कर रहे थे। उनमें वे बहुत कठिनाई अनुभव करने लगे। एक दिन उन्होंने आचार्य वज्र से पूछा-'भगवन्! दसवां पूर्व कितना शेष रहा है?' आचार्य बोले-'अभी तो बिन्दुमात्र ग्रहण किया है, समुद्र जितना शेष है। अभी सर्षप और मंदर जितना अन्तर है।' यह सुनकर आर्यरक्षित विषादग्रस्त हो गये। सोचा, मेरे में इतनी शक्ति कहां है कि मैं इसका पार पा सकू? उन्होंने आचार्य से पूछा-'भगवन् ! मैं घर जाना चाहता हूं। यह मेरा भाई फल्गुरक्षित आ गया है।' आचार्य बोले- 'अभी पढ़ो।' इस प्रकार आर्यरक्षित आगे पढ़ता और प्रतिदिन आचार्य से घर जाने की बात पूछता। एक दिन आचार्य ने ज्ञान से उपयोग लगाकर देखा और जाना कि दसवां पूर्व मेरे साथ ही व्युच्छिन्न हो जाएगा। उन्होंने जान लिया कि मेरा आयुष्य अल्प है। आर्यरक्षित घर जाने के पश्चात् लौटकर नहीं आयेगा अतः मेरे बाद यह दसवां पर्व व्यच्छिन्न हो जाएगा। उन्होंने आर्यरक्षित को घर जाने की अनमति दे दी। आरक्षित भाई के साथ वहां से प्रस्थित हुए और दशपुर नगर पहुंचे।
आर्यरक्षित ने वहां पहुंचकर अपने समस्त स्वजनवर्ग को प्रव्रजित कर दिया। माता और भगिनी भी प्रव्रजित हो गयी। आर्यरक्षित का पिता उनके प्रति अनुराग के कारण उनके साथ ही रहता किन्तु लज्जा के कारण मुनिवेश धारण करने का इच्छुक नहीं बना। मैं श्रमणदीक्षा कैसे ले सकता हूं? यहां मेरी लड़कियां, पुत्रवधुएं तथा पौत्र आदि हैं, मैं उन सबके समक्ष नग्न कैसे रह सकता हूं? आचार्य आर्यरक्षित ने अनेक बार प्रव्रज्या की प्रेरणा दी। उसने कहा- 'यदि वस्त्र-युगल, कुंडिका, छत्र, जूते तथा यज्ञोपवीत रखने की अनुमति दो तो मैं प्रव्रज्या ग्रहण कर सकता हूं।' आचार्य ने सब स्वीकार कर लिया। वह प्रव्रजित हो गया। उसे चरण-करण स्वाध्याय करने वालों के पास रखा गया। वह कटिपट्टक, छत्र, जूते, कुंडिका तथा यज्ञोपवीत आदि को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था।
एक बार आचार्य चैत्य-वंदन के लिए गए। आचार्य ने पहले से ही बालकों को सिखा रखा था। सभी बालक एक साथ बोल पड़े-'हम सभी मुनियों को वंदना करते हैं, एक छत्रधारी मुनि को छोड़कर।' तब उस वृद्ध मुनि ने सोचा, ये मेरे पुत्र-पौत्र सभी वंदनीय हो रहे हैं। मुझे वंदना क्यों नहीं की गयी? वृद्ध ने बालकों से कहा-'क्या मैं प्रव्रजित नहीं हूं।' वे बोले-'जो प्रव्रजित होते हैं, वे छत्रधारी नहीं होते।' वृद्ध ने सोचा, ये बालक भी मुझे प्रेरित कर रहे हैं। अब मैं छत्र का परित्याग कर देता हूं। स्थविर ने अपने पुत्र आचार्य से कहा- 'पुत्र! अब मुझे छत्र नहीं चाहिए।' आचार्य ने कहा-'अच्छा है। जब गर्मी हो तब अपने सिर पर वस्त्र रख लेना।' बालक फिर बोले- 'कुंडिका क्यों? संज्ञाभूमि में जाते समय पात्र ले जाया जो सकता है।' उसने कुंडिका भी छोड़ दी। यज्ञोपवीत का भी परित्याग कर दिया। आचार्य आर्यरक्षित बोले- 'हमें कौन नहीं जानता कि हम ब्राह्मण हैं।' वृद्ध मुनि ने सारी चीजें छोड़ दी, एक कटिपट्ट रखा।
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