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परि. ३ : कथाएं
'मैंने आज सबसे पहले आर्यरक्षित को देखा है।' मां तुष्ट होकर सोचने लगी- 'मेरे पुत्र ने सुन्दर और मंगल वस्तु देखी है। वह नौ पूर्व पूरे तथा दसवें का कुछ अंश ही प्राप्त कर सकेगा। इधर आर्यरक्षित ने भी सोचा, मुझे दृष्टिवाद के नौ अंग अथवा अध्ययन ही मिलेंगे, दसवां पूरा नहीं मिलेगा। वह वहां से इक्षुगृह में गया और सोचा- 'क्या मैं ऐसे ही प्रवेश करूं? मैं विधि नहीं जानता। आचार्य का कोई श्रावक आयेगा तो उसके साथ प्रवेश करूंगा।' यह सोचकर वह एक ओर बैठ गया । उसी समय ढड्डर नामक श्रावक शरीरचिन्ता से निवृत्त होकर उपाश्रय में जा रहा था। उसने दूर से ही तीन बार उच्च स्वर में नैषेधिकी का उच्चारण किया। आरक्षित मेधावी था, उसने वंदन - विधि की अवधारणा कर ली। वह भी उसी क्रम से भीतर गया और सभी मुनियों को वंदना की । श्रावक को वंदना नहीं की। तब आचार्य ने सोचा- 'यह नया श्रावक आया है।' साधुओं ने पूछा—‘कौन से धर्म से आए हो ?' रक्षित बोला- 'इस ढड्डर श्रावक के मूल से।' साधुओं ने आचार्य को बताया कि यह श्राविका का पुत्र है । इसने कल हाथी पर चढ़कर नगर में प्रवेश किया था । उन्होंने आचार्य को पूरा वृत्तान्त कहा । रक्षित बोला- 'मैं आपके पास दृष्टिवाद का अध्ययन करने आया हूं। आचार्य बोले- 'हमारे पास दीक्षित होने पर ही हम दृष्टिवाद का अध्ययन करवाते हैं।' रक्षित बोला- 'मैं प्रव्रजित हो जाऊंगा।' आचार्य ने कहा- 'प्रव्रजित हो जाने पर भी परिपाटी से दृष्टिवाद पढ़ाया जाता है।' रक्षित बोला- ' परिपाटी से पढूंगा किन्तु मैं यहां प्रव्रजित नहीं हो सकूंगा क्योंकि यहां का राजा मुझमें अनुरक्त है। लोग भी बहुत अनुरक्त हैं । प्रव्रजित होने के पश्चात् वे बलात् मुझे घर ले जायेंगे अतः यहां से अन्यत्र चलें ।' आचार्य आर्यरक्षित को साथ लेकर अन्यत्र चले गए। यह पहली शिष्य - निष्पत्ति थी । आर्यरक्षित ने शीघ्र ही ग्यारह अंग पढ़ लिए। आचार्य तोसलिपुत्र जितना दृष्टिवाद जानते थे, वह भी उसने सारा पढ़ लिया। उसने सुना कि आर्यवज्र युगप्रधान आचार्य हैं, वे दृष्टिवाद के अधिक ज्ञाता हैं । तब आर्यरक्षित उज्जयिनी के बीच से होते हुए चले। वहां वह स्थविर भद्रगुप्त के पास पहुंच गया। उन्होंने भी उसका उपबृंहण करते हुए कहा - 'तुम धन्य हो, कृतार्थ हो । मैं संलेखना कर रहा हूं। मेरा निर्यापकसहायक कोई नहीं है। तुम मेरे निर्यापक बन जाओ।' आर्यरक्षित ने यह बात स्वीकार कर ली। मरते समय स्थविर भद्रगुप्त बोले- 'आर्य! तुम वज्रस्वामी के पास जा रहे हो परन्तु उनके साथ उपाश्रय में मत रहना । दूसरे उपाश्रय में ठहर कर पढ़ना क्योंकि जो उनके साथ एक रात भी रह जाता है, वह मर जाता है ।' आरक्षित ने यह बात मान ली। स्थविर भद्रगुप्त के कालगत हो जाने पर वह वज्रस्वामी पास गया। वह उपाश्रय के बाहर ही ठहरा। आर्यवज्र ने उसी रात एक स्वप्न देखा कि एक आगंतुक ने उनके पास से बहुत ले लिया लेकिन उनके पास कुछ अवशिष्ट रह गया। आर्यरक्षित आए तब आचार्य ने पूछा- 'कहां से आए हो ?' उसने कहा- 'तोसलिपुत्र आचार्य के पास से आया हूं। मेरा नाम आर्यरक्षित है।' आचार्य बोले‘अच्छा, आओ स्वागत है तुम्हारा । कहां ठहरे हो ? ' रक्षित बोला- ' बाहर ठहरा हूं ।' आचार्य बोले- 'क्या बाहर स्थित व्यक्ति को अध्ययन कराया जा सकता है ? क्या तुम यह नहीं जानते ?' तब आर्यरक्षित बोले'क्षमाश्रमण स्थविर भद्रगुप्त ने मुझे कहा था कि उपाश्रय के बाहर ही ठहरना ।' तब आचार्य वज्र ने उपयुक्त होकर जान लिया कि आर्य निष्कारण कुछ नहीं कहते। अच्छा, तुम बाहर ही ठहरो । उन्होंने उसे पढ़ाना प्रारंभ किया। आर्यरक्षित ने शीघ्र ही नौ पूर्व पढ़ लिए। दसवें पूर्व का अध्ययन चल रहा था तब आर्यवज्र ने कहा- 'इसके यविक करो। इसका यही परिकर्म है । ये गूढ और सूक्ष्म हैं।' आर्यरक्षित ने दसवें पूर्व के चौबीस यविक ग्रहण कर लिए। आर्यवज्र भी पढ़ाते रहे ।
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