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________________ आवश्यक नियुक्ति ४२३ ९७. आर्यरक्षित दशपुर नगर में सोमदेव नामक ब्राह्मण रहता था। उसकी भार्या का नाम रुद्रसोमा था, जो श्राविका थी। उसके पुत्र का नाम रक्षित था। रक्षित के छोटे भाई का नाम फल्गुरक्षित था। रक्षित ने अपने पिता के पास अध्ययन किया। घर में आगे पढ़ना नहीं होगा यह सोचकर वह अध्ययन हेतु पाटलिपुत्र गया। वहां उसने सांगोपांग चारों वेदों का अध्ययन किया। वह समाप्तपारायण और शाखापारग हो गया। उसने चौदह विद्यास्थान अच्छी तरह ग्रहण कर लिए। अध्ययन पूर्ण कर वह दशपुर नगर आया। उसके पारिवारिक जन राजकुल के सेवक थे। उन्होंने राजा को उसके आगमन की सूचना दी। राजा ने उसके सम्मान में नगर को पताकाओं से सजाया। राजा स्वयं उसकी अगवानी में गया। उसका सत्कार किया और बैठने के लिए सबसे आगे आसन दिया। इस प्रकार रक्षित पूरे नगरवासियों से अभिनन्दन स्वीकार करता हुआ, हाथी के हौदे पर बैठकर अपने घर पहुंचा। वहां भी बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् से वह सम्मानित हुआ। चन्दन और कलश आदि से उपशोभित वह बाह्य आस्थानमंडप में बैठा था। लोगों से वह उपहार लेने लगा। तब उसने देखा कि उसके वयस्य और मित्र वहां आए हुए हैं। परिजनों तथा अन्य लोगों ने उसको अर्घ्य चढ़ाया, स्तुति की। उसका घर द्विपद, चतुष्पद तथा हिरण्यसुवर्ण से भर गया। उसने सोचा- 'क्या बात है, मां नहीं दिखाई दे रही है।' घर के भीतर उसने मां को बैठे हुए देखा। उसने मां को प्रणाम किया। ‘स्वागत है पुत्र!' इतना कहकर मां मौन हो गई। रक्षित ने पूछा- 'मां क्या तुम मेरे अध्ययन से प्रसन्न नहीं हो? मैंने चौदह विद्यास्थानों का अध्ययन कर पूरे नगर को विस्मित कर डाला है। तुम तुष्ट क्यों नहीं हो?' मां बोली-'पुत्र! मुझे तुष्टि कैसे हो?' तुम अनेक प्राणियों के वधकारक ज्ञान को अर्जित कर आए हो। जिस ज्ञान से भवभ्रमण बढ़ता है, उससे मैं कैसे संतुष्ट हो सकती हूं? क्या तुम दृष्टिवाद पढ़कर आए हो?' रक्षित ने सोचा-'वह दृष्टिवाद कितना विशाल होगा? जाऊं और पढूं, जिससे मां को संतोष होगा। केवल लोगों को संतुष्ट करने से क्या?' वह बोला- 'मां! कहां है वह दृष्टिवाद?' मां बोली-दृष्टिवाद का ज्ञान साधुओं के पास है। रक्षित दृष्टिवाद के अक्षरार्थ को सोचने लगा-दृष्टियों-मत-मतान्तरों का वाद-दृष्टिवाद। उसने सोचानाम बहुत सुन्दर है। यदि कोई मुझे पढ़ायेगा तो मैं पढूंगा, जिससे मां को भी संतोष होगा। उसने मां से पूछा- 'दृष्टिवाद के ज्ञाता कौन हैं ?' मां ने कहा- 'हमारे इक्षुगृह में तोसलिपुत्र नामक आचार्य हैं, वे दृष्टिवाद के ज्ञाता हैं।' रक्षित बोला-'कल से मैं उसका अध्ययन प्रारंभ कर दूंगा, तुम उदासीन मत बनो।' रक्षित दृष्टिवाद के अर्थ में इतना तल्लीन हो गया कि रातभर सो नहीं सका। दूसरे दिन प्रभात होने से पूर्व ही वह घर से चल दिया। उसके पिता का मित्र ब्राह्मण उपनगर के एक गांव में रहता था। उसने कल रक्षित को नहीं देखा था। आज रक्षित को देखूगा यह सोच वह उसके स्वागत-उत्सव को देखने तथा उपहार देने के लिए नौ इक्षुदंड पूरे तथा एक इक्षुदंड आधा लेकर आ रहा था। रास्ते में रक्षित मिल गया। उस ब्राह्मण ने पूछा- 'तुम कौन हो?' उसने कहा- 'मैं आर्यरक्षित हूं।' तब ब्राह्मण ने प्रसन्न होकर उसको गले लगा लिया और कहा- 'स्वागत है तुम्हारा! मैं तुमको देखने के लिए ही आ रहा था।' रक्षित बोला-'आप पधारें मैं शरीरचिन्ता से निवृत्त होने के लिए जा रहा हूं। इन इक्षुदंडों को मेरी मां को देकर कहना कि मैंने आर्यरक्षित को सबसे पहले देखा है।' घर पहुंचकर मां को इक्षुदंड देकर वह बोला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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