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________________ आवश्यक नियुक्ति ४२१ करती हुई रानी का सिर दिखाई नहीं दिया। वह धैर्य खो बैठा और उसके हाथ से वीणा छूटकर नीचे गिर पड़ी। देवी ने रुष्ट होकर कहा- 'क्या मैंने नृत्य ठीक नहीं किया?' बहुत पूछने पर राजा ने यथार्थ बात बताई। उसने कहा- 'मरने की मुझे क्या चिंता?' चिरकाल तक मैंने श्रावकत्व का पालन किया है। एक बार रानी ने स्नान करके दासी से कहा-'कपड़े लेकर आओ।' दासी लाल रंग के कपड़े ले आई। रानी ने रुष्ट होकर उसे दर्पण से आहत करते हुए कहा- 'मैं मंदिर में जा रही हूं और तुमने लालवस्त्र लाकर दिए हैं।' दासी दर्पण की चोट से मर गई। रानी ने सोचा- 'मैंने पहला व्रत खंडित कर डाला। अब जीने से क्या प्रयोजन?' उसने राजा से पछा-'मैं भक्तप्रत्याख्यान करना चाहती हैं। राजा ने कहा-'यदि देव बनकर तुम मुझे प्रतिबुद्ध करो तो मेरी आज्ञा है। रानी ने स्वीकार कर लिया। भक्त्प्रत्याख्यान द्वारा मृत्यु को प्राप्त कर वह प्रभावती देव बनी। इधर देवदत्ता नामक कुब्जा दासी जिन प्रतिमा की पूजा-अर्चना करने लगी। प्रभावती देव ने उदयन को प्रतिबोध दिया परन्तु तापसभक्त होने के कारण वह संबुद्ध नहीं हुआ। तब देव तापस रूप बनाकर अमृतफल लेकर आया। राजा ने फल चखे और पूछा-'ये फल कहां से लाए हो?' देव रूप तापस बोला- 'नगर से दूर मेरा आश्रम है। वहां से ये फल लाया हूं।' राजा उसके साथ आश्रम में गया। आगे वनखण्ड में प्रवेश किया। वहां साधुओं को देखा। साधुओं से धर्म-वार्ता सुनकर राजा संबुद्ध हो गया। देव ने अपना मूल रूप दिखाया। राजा ने देखा कि वह तो सभामण्डप में ही बैठा है। वह श्रावक बन गया। ___ गांधार श्रावक तीर्थंकरों की जन्मभूमि में चैत्य-वंदना कर वैताढ्य पर्वत पर यह सुनकर गया कि वहां स्वर्ण प्रतिमा है। वह वहां उपवास करके बैठ गया। देवता प्रगट हुए। तुष्ट होकर देव ने समस्त इच्छाएं पूर्ण करने वाली सौ गुटिकाएं दीं। वह गुटिकाओं को साथ लेकर जा रहा था। इतने में ही उसने सुना कि वीतभय नगर में गोशीर्षचंदन की प्रतिमा है। वह वंदन करने चला। वह वहां बीमार पड़ गया। देवदत्ता ने उसकी प्रतिचर्या की। श्रावक ने तुष्ट होकर सारी गुटिकाएं देवदत्ता को दे दी। कालान्तर में वह श्रावक प्रव्रजित हो गया। एक दिन देवदत्ता ने गुटिका को मुंह में रखकर मन ही मन सोचा- 'मेरा वर्ण कनक सदृश हो जाए।' गुटिका के प्रभाव से उसका शरीर सुंदर और स्वर्ण आभा वाला हो गया। वह देवकन्या के समान प्रतीत होने लगी। उसने पुनः सोचा- 'मैं भी भोग भोगूं। यहां का राजा मेरे पिता के समान है। दूसरे सारे रक्षक हैं अत: अच्छा हो यदि प्रद्योत मुझे पति के रूप में मिल जाए।' यह बात सोचकर उसने गुटिका खाई। इधर देवता ने प्रद्योत से कहा- 'देवदत्ता अत्यन्त रूपवती है।' प्रद्योत ने स्वर्णगुटिका के पास दूत भेजा। देवदत्ता ने कहा- 'मैं भी प्रद्योत को देखना चाहती हूं।' प्रद्योत अनलगिरि हाथी पर आरूढ़ होकर रात्रि में वहां आया। देवदत्ता उसमें आसक्त हो गई। उसने प्रद्योत से कहा- 'यदि तुम प्रतिमा को साथ ले जा सको तो मैं तुम्हारे साथ चल सकती हूं।' दूसरी प्रतिमा नहीं है, यह सोचकर रात भर वहां रहकर वह वापस चला गया। दूसरी बार वह प्रतिरूप जिन-प्रतिमा को साथ लेकर आया। मूल प्रतिमा के स्थान पर उसे रखकर वह प्रतिमा और स्वर्णगुटिका दासी को साथ लेकर उज्जयिनी लौट गया। ___ अनलगिरि हाथी ने वीतभय में मूत्र और लीद की थी। उसकी गंध से दूसरे सारे हाथी उन्मत्त हो गए। जिस दिशा से गंध आ रही थी वहां नगररक्षकों ने अनलगिरि हाथी के पदचिह्न देखे। उन्होंने सोचा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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