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________________ ४२० परि. ३ : कथाएं हो गया। वे समुद्र में दूर तक चले गए। आगे जाकर स्थविर ने पूछा- 'भद्र! कुछ देख रहे हो क्या?' उसने कहा- 'हां, कुछ काला-काला-सा दृष्टिगोचर हो रहा है।' यानपात्रवाहक स्थविर बोला- 'यह पर्वत के मूल में उत्पन्न समुद्रकूल पर स्थित वटवृक्ष है।' यह नौका इस वटवृक्ष के नीचे से जाएगी। उस समय तुम जागरूक रहकर उस वटवृक्ष की शाखा को पकड़ लेना। वहां पंचशैल से भारंड पक्षी आयेंगे। वे दो होंगे। उनके तीन-तीन पैर होंगे। जब वे सो जाएं तब मध्य पैर को पकड़ लेना और स्वयं को एक कपड़े से बांध लेना। वे तुमको पंचशैल में ले जाएंगे। यदि तुम उस वृक्ष की शाखा को नहीं पकड़ोगे तो यह यानपात्र वलयमुख में प्रविष्ट होकर नष्ट हो जाएगा। ___ यानपात्र वटवृक्ष के नीचे पहुंचा। कुमारनंदी ने तत्काल वटवृक्ष की शाखा पकड़ ली। भारंड पक्षियों ने उसे पंचशैल द्वीप पहुंचा दिया। व्यन्तरियों ने उसे देखा, अपनी ऋद्धि दिखाई। कुमारनंदी उनमें गृद्ध हो गया। उन्होंने कहा- 'भद्र! तुम इस शरीर से हमारा उपभोग नहीं कर पाओगे। अग्नि आदि में प्रवेश करो और संकल्प करो कि मैं पंचशैल द्वीप का अधिपति बनूंगा।' कुमारनंदी बोला-'अब घर कैसे जाऊं?' व्यन्तरियों ने उसे करतलपुट पर बिठाकर चंपा नगरी के उद्यान में लाकर छोड़ दिया। लोगों के पूछने पर पंचशैल द्वीप में जो देखा, सुना या अनुभव किया, वह सारा बताने लगा। मित्र के द्वारा निषेध करने पर भी इंगिनीमरण अनशनपूर्वक उसने प्राण त्याग दिए। मरकर वह पंचशैल का अधिपति बना । उसके मित्र श्रावक को विरक्ति हुई कि यह भोगों के लिए कितना कष्ट पाता है। मैं जानता हुआ घर में क्यों रहूं? यह सोचकर वह प्रव्रजित हो गया। मरकर वह अच्युत कल्प में देव बना। अवधिज्ञान से उसने कुमारनंदी को देखा। एक बार नंदीश्वर द्वीप की यात्रा में गले में पटह डालकर, उसे बजाता हुआ वह नंदीश्वर द्वीप गया। श्रावक देव ने उसे देखा। वह उसका तेज सहन न करता हुआ पलायन करने लगा। श्रावक ने अपने दिव्य तेज का संहरण कर कहा- 'क्या तुम मुझे पहचानते हो?' वह बोला- 'शक्र आदि इंद्रों को कौन नहीं जानता?' तब उस देव ने अपना श्रावकरूप बनाया और सारा वृत्तान्त सुनाया। संवेग को प्राप्त कुमारनंदी बोला- 'बताओ अब मैं क्या करूं?' उसने कहा- 'वर्द्धमान स्वामी की प्रतिमा का निर्माण करो, इससे तुम्हें सम्यक्त्व बीज की प्राप्ति होगी।' तब उसने महाहिमवान् पर्वत से गोशीर्षचंदन का एक वृक्ष छेदा और प्रतिमा बनाकर उसे एक काष्ठ के संपुट में डालकर भरत क्षेत्र में आया। उसने उत्पात के कारण छह महीनों से घूमते हुए समुद्र के बीच एक प्रवहण को देखा। देव ने उत्पात को शांत किया और अपनी काष्ठ पेटिका देते हुए कहा- 'इससे देवाधिदेव की प्रतिमा बनवानी है।' प्रवहण वीतभय नगर में पहुंचा। काष्ठ संपुट वहां उतारा गया। वहां का राजा उदयन तापसभक्त था। उसकी रानी का नाम प्रभावती था। व्यापारियों ने राजा से कहा-'इस काष्ठ से देवाधिदेव की प्रतिमा करानी है।' राजा की आज्ञा से बढ़ई इंद्र आदि की प्रतिमा बनाने लगे लेकिन काष्ठ पर परशु नहीं चला। प्रभावती ने जब यह सुना तो उसने कहा- 'देवाधिदेव वर्धमानस्वामी हैं, उनकी प्रतिमा बनवाओ।' वैसा ही प्रयत्न करने पर चंदनकाष्ठ से पूर्व निर्मित प्रतिमा स्पष्ट हो गई। रानी ने अंत:पुर में चैत्यगृह बनवाकर उसमें मूर्ति की स्थापना कर दी। प्रभावती स्नान आदि करके तीनों सन्ध्याओं में मूर्ति की अर्चना करने लगी। एक बार रानी प्रभावती मूर्ति के समक्ष नृत्य कर रही थी। राजा वीणा-वादन कर रहा था। उसे नृत्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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