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________________ आवश्यक नियुक्ति ४१९ आर्यवज्र ने जिस वज्रसेन शिष्य को कार्य हेतु भेजा था, वह घूमता हुआ सोपारक गांव में आया। वहां एक धनाढ्य और तत्त्वज्ञानी श्राविका रहती थी। उसने सोचा-दुर्भिक्ष है अत: कैसे जीवित रहेंगे? कोई आधार नहीं है। इसलिए उसने लक्ष मूल्य वाला भक्तपान निष्पन्न किया और सोचा-यहां हम सदा ऊर्जित जीवन जीते रहे हैं। अब हम यहां इस ऊर्जित देह का पोषण नहीं कर सकते। अब कोई आधार नहीं है अतः इस लक्षमूल्य से निष्पन्न भक्त में विष मिलाकर खा लें और 'नमोक्कार' का जाप करते हुए मृत्यु का वरण कर लें। वे सब यह करने के लिए तत्पर हो गए। वे उस भोजन में विष मिलाने ही वाले थे कि वज्रसेन मुनि घूमता हुआ वहां आ पहुंचा। गृहस्वामिनी ने बहुत प्रसन्न होकर उसे परमान्न की भिक्षा दी। मुनि ने उसे यथार्थ तथ्य बताते हुए कहा-'तुम अनशन मत करो। मुझे वज्रस्वामी ने कहा है कि जब तुम्हें लक्षमूल्य वाली भिक्षा मिलेगी उसके दूसरे दिन सुभिक्ष हो जाएगा। तब तुम प्रव्रज्या ग्रहण कर लेना।' गृहस्वामिनी ने साधु को वहीं रहने के लिए कहा। इधर उसी दिन प्रवहणों से तन्दुल आ गए। तब सबके लिए जीने का आधार हो गया। वह मुनि वहीं रहा। सुभिक्ष हो गया। वे सभी श्रावक उसके पास प्रव्रजित हो गए। वह मुनि वज्रस्वामी के पद पर आ गया और वज्रस्वामी का शिष्यवंश अवस्थित हो गया। ९६. दशपुर नगर की उत्पत्ति चंपानगरी में कुमारनंदी नामक स्वर्णकार रहता था। वह बहुत स्त्री-लोलुप था। वह जहां-जहां सुरूप कुमारियों को देखता या सुनता तो वह पांच सौ स्वर्ण-मुद्राएं देकर उनके साथ विवाह कर लेता। इस प्रकार उसने पांच सौ ललनाओं के साथ विवाह कर लिया। वह ईर्ष्यालु था। उसने एक स्तंभ वाला विशाल प्रासाद बनवाया और उन सबको वहीं रखा। उनके साथ वह क्रीड़ा करता। नाइल नामक श्रमणोपासक उसका मित्र था। एक बार पंचशैलद्वीप में रहने वाली दो व्यंतर देवियां सुरपति के आदेश से नंदीश्वर द्वीप की यात्रा के लिए प्रस्थित हईं। उनका पति विद्युन्माली देव, जो पंचशैलद्वीप का अधिपति था. वह वहां से च्युत हो गया। तब दोनों व्यन्तर देवियों ने सोचा कि जो हमारा पति बनने योग्य हो, उसका हम अपहरण कर ले आएं । वे यात्रा पर जा रहीं थीं। जाते-जाते उन्होंने चंपा नगरी में कुमारनंदी को पांच सौ ललनाओं के साथ क्रीड़ा करते देखा। उन्होंने सोचा- 'यह स्त्रीलोलुप है, इसका हम अपहरण करें।' जब कुमारनंदी उद्यान में गया तब दोनों देवियां उसके सम्मुख उपस्थित हुईं। उसने पूछा- 'तुम कौन हो?' उन्होंने कहा- 'हम देवियां हैं।' उनके रूप पर मूर्च्छित होकर वह उनसे कामभोगों की प्रार्थना करने लगा। देवियां बोलीं'यदि हमारे से कार्य है तो तुम पंचशैल द्वीप में आओ'-यह कहकर दोनों देवियां आकाशमार्ग से चली गईं। कुमारनंदी उनके प्रति अत्यंत आसक्त हो गया। उसने राजकुल में स्वर्ण देकर यह पटह घोषित किया कि कुमारनंदी को जो पंचशैल द्वीप में ले जाएगा उसे वह करोड़ रुपए धन देगा। एक स्थविर नाविक ने पटह को झेला और उसने एक विशेष नौका का निर्माण किया। उसमें आवश्यक भोजन सामग्री रखी। कुमारनंदी ने मूल्य स्थविर नाविक को दे दिया। धन पुत्रों को सौंप वह नाविक यानपात्र से कुमारनंदी के साथ प्रस्थित १. आवचू. १ पृ. ४०४-४०६, हाटी. १ पृ. २०२, २०३, मटी. प. ३९५, ३९६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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