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________________ ४१८ श्रमणोपासक हो गया। वहां से विहार कर आर्यवज्र आभीर देश में गए। ९५. आर्य वज्र का भक्तप्रत्याख्यान वज्रस्वामी वहां से विहार कर दक्षिणापथ में चले गए। वहां उनके कफाधिक्य का रोग हो गया । एक दिन उन्होंने साधुओं से कहा- 'मेरे लिए सूंठ ले आओ।' साधु सूंठ का गांठिया लेकर आए। उस समय उन्होंने सूंठ के गांठिए को यह सोचकर कान पर रख दिया कि भोजन के समय इसका उपयोग करूंगा। वे भूल गए। सायंकालीन प्रतिक्रमण के समय मुंहपत्ती से संघट्टित होकर वह गांठिया नीचे गिरा । उन्होंने उपयोग लगाया और सोचा, 'अहो ! मेरे से प्रमाद हो गया । प्रमत्त के संयम नहीं होता । अच्छा है अब मैं भक्तप्रत्याख्यान कर अनशन कर लूं।' उन्होंने ज्ञान से देखा। उस समय बारह वर्ष का दुर्भिक्ष था। चारों ओर मार्ग छिन्न हो चुके थे। तब वज्रस्वामी विद्याबल से आहृतपिंड लाकर साधुओं को देने लगे। उन्होंने साधुओं से कहा - 'बारह वर्षों तक ऐसे ही खाना होगा। भिक्षा प्राप्त नहीं होगी ।' यदि संयम गुणों का उत्सर्पण होता हो तो ऐसा भोजन करें। यदि ऐसा न होता हो तो भक्तप्रत्याख्यान कर लें। तब साधुओं ने कहा-' - "ऐसे विद्याबल से आनीत पिंड से हमारा क्या प्रयोजन ? हम भक्तप्रत्याख्यान करेंगे।' आचार्य वज्र को सुभिक्ष का पहले ही पता लग गया था। उन्होंने अपने वज्रसेन नामक शिष्य को यह कहकर भेजा कि जब तुम्हें लाख मूल्य से निष्पन्न भिक्षा मिले तो जान लेना कि दुर्भिक्ष नष्ट हो गया है। उसके बाद आर्यवज्र श्रमणों से परिवृत होकर एक पर्वत के पास यह सोचकर गए कि वहां भक्तप्रत्याख्यान करना है। एक क्षुल्लक मुनि को साधुओं ने कहा- 'तुम अन्यत्र चले जाओ।' वह जाना नहीं चाहता था। तब मुनियों ने उसे एक गांव में ले जाकर विमोहित कर दिया और पर्वत पर भक्तप्रत्याख्यान के लिए तत्पर हो गए । क्षुल्लक मुनि भी उन साधुओं के पदचिह्नित मार्ग से उसी पर्वत तक पहुंच गया। साधुओं को मेरी ओर से असमाधि न हो इसलिए वह उसी पर्वत की तलहटी पर पादपोपगमन अनशन में स्थित हो गया। जैसे ताप से नवनीत पिघल जाता है, वैसे ही वह क्षुल्लक मुनि भी शीघ्र ही कालगत हो गया। देवताओं ने महिमा की । तब आचार्य वज्र ने कहा - ' क्षुल्लक मुनि ने अपना प्रयोजन सिद्ध कर लिया है।' साधुओं ने जब यह सुना तो उनके मन में द्विगुणित श्रद्धा - संवेग उदित हुआ। उन्होंने कहा - 'उस मुनि ने बालक होते हुए भी अपना प्रयोजन सिद्ध कर लिया तो क्या हम उससे सुंदरतर नहीं कर सकेंगे ?' वहां एक देवता प्रत्यनीक था । उसने श्राविका का रूप बनाया और साधुओं को भक्तपान ग्रहण करने के लिए निमंत्रण दिया। उसने कहा- 'आज मेरे पारणक का दिन है अतः आप भिक्षा की कृपा करें।' तब आचार्य ने जान लिया कि यह भक्तपान अकल्पनीय है। वहीं निकट में एक दूसरा पर्वत था। मुनि वहां गए। वहां देवता के आह्वान हेतु कायोत्सर्ग किया। देवता ने प्रगट होकर कहा - 'अहो ! मेरे पर आपने अनुग्रह किया है। आप यहां ठहरें।' वहां वे मुनि कालगत हो गए। इन्द्र वहां रथ में आया और प्रदक्षिणा देते हुए वंदना की। उसने तरुवर और तृणों को अवनत कर दिया । आज भी वे वहां उसी अवस्था में हैं। तब से उस पर्वत का नाम रथावर्त हो गया। आर्यवज्र के दिवंगत होने पर'अर्द्धनाराचसंहनन तथा दसवां पूर्व व्युच्छिन्न हो गया। १. आवनि. ४७६ / १ - ९, आवचू. १ पृ. ३८१-३९७, हाटी. १ पृ. १९१-१९७, मटी. प. ३८३ - ३९१ । Jain Education International परि. ३ : कथाएं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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