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________________ आवश्यक नियुक्ति ४१५ लिया। तब उन्होंने बाढस्वर से 'निस्सिही, निस्सिही' शब्द करते हुए भीतर की ओर प्रवेश किया। शब्द सुनते ही आर्य वज्र आसन से उठे । आचार्य को शंका न हो इसलिए शीघ्रता से उन कंबलों को उठाकर यथास्थान रख दिया। आगे आकर उन्होंने आचार्य के हाथ में स्थित दंड को ग्रहण कर उनके पैरों की प्रमार्जना की। आचार्य ने सोचा- 'अन्यान्य मुनि आर्य वज्र का पराभव न करें, इसलिए मैं इनको ज्ञापित कर दूं।' रात्रि में आचार्य ने कहा- 'मैं अमुक गांव जा रहा हूं। वहां दो-तीन दिन रहूंगा।' तब योगप्रतिपन्न मुनियों ने पूछा - 'हमारे वाचनाचार्य कौन होंगे ?' आचार्य ने कहा- 'वज्र वाचनाचार्य होगा ।' मुनियों ने विनीत भाव से तहत् कहकर इसे स्वीकार कर लिया और सोचा आचार्य ही हमारे प्रमाण हैं । आचार्य विहार कर गए। प्रातः काल मुनियों ने वसति की प्रतिलेखना की और वसति का कालनिवेदन आदि भी आर्यवज्र के समक्ष किया। मुनियों ने उनके लिए निषद्या की रचना की । आर्य वज्र उस निषद्या पर आकर बैठ गए। वे सभी मुनि आचार्य की भांति उनके प्रति विनय करने लगे। तब आर्य वज्र अनुक्रम से सभी मुनियों को व्यक्त शब्दों आलापक देने लगे। जो मुनि मंदबुद्धि थे, वे भी उन प्रदत्त आलापकों को शीघ्र प्रस्थापित करने लगे। वे सब विस्मित हो गए। जो पूर्वपठित आलापक ज्ञात था, उसे भी सम्यग् विन्यास के लिए उन्होंने आर्यवज्र से पूछा । आर्यवज्र ने पूरा आलापक अच्छी तरह से समझाया। तब मुनि संतुष्ट होकर आपस में बोले- 'ये बालक होकर भी प्रौढ़ हैं। यदि आचार्यवर कुछ दिन और उसी गांव में रहें तो हमारा यह श्रुतस्कंध शीघ्र समाप्त हो जाएगा। आचार्य के पास जिस श्रुतस्कंध को चिर परिपाटी से हम ग्रहण करते थे, उसे आर्यवज्र ने एक पौरुषी में संपन्न कर दिया। इस प्रकार आचार्य वज्र सभी मुनियों के लिए बहुमान्य हो गए। आचार्य ने मुनियों से पूछा - 'स्वाध्याय कर लिया ? इसने वाचना कैसी दी ?' मुनि बोले- 'हां, अब आर्य वज्र ही हमारे वाचनाचार्य हों। अवशेष ज्ञान भी हम आर्यवज्र से करना चाहते हैं।' आचार्य ने कहा - 'अब यही तुम्हारे वाचनाचार्य होंगे। इनका कहीं तुम पराभव न कर दो, इसलिए बहाना बनाकर मैं दूसरे गांव गया था।' आर्यवज्र अभी कल्पिक नहीं हुए हैं। इन्होंने सारा ज्ञान कानों से सुनकर ग्रहण किया है इसलिए इसका उत्सारकल्प करना चाहिए। आचार्य ने शीघ्र ही उनका उत्सारकल्प करवा दिया। दूसरे प्रहर में अर्थ की वाचना दी। अब यह उभयकल्प योग्य है। जो अर्थ आचार्य के लिए शंकित थे, उन अर्थों को भी आर्यवज्र ने स्पष्ट किया। आचार्य जितना दृष्टिवाद जानते थे, आर्यवज्र उतना ग्रहण कर लिया। वे विहार करते हुए दशपुर नगर में गए। उज्जयिनी में भद्रगुप्त नाम के आचार्य स्थविरकल्प में स्थित थे। वे दृष्टिवाद के ज्ञाता थे। आचार्य ने आर्यवज्र के साथ दो मुनियों को भेजा । वे आचार्य भद्रगुप्त के पास दृष्टिवाद का ज्ञान लेने के लिए गए। उस दिन आचार्य भद्रगुप्त ने एक स्वप्न देखा कि मेरा पात्र दूध से भरा हुआ है। एक आगंतुक आया और सारा दूध पीकर आश्वस्त हो गया । प्रातः आचार्य ने साधुओं को स्वप्न की बात बताई। उन्होंने इसका अर्थ भिन्न-भिन्न प्रकार से लगाया। गुरु बोले- 'तुम नहीं जानते। आज एक प्रतीच्छक (अन्य गच्छ का शिष्य) आयेगा । वह सारा सूत्र और अर्थ ग्रहण करेगा।' स्थविर आचार्य भद्रगुप्त प्रतिश्रय के बाहर आकर बैठ गए। उन्होंने आर्य वज्र को आते देखा। आर्यवज्र के विषय में उन्होंने पहले से सुन रखा था। वे उसे देखकर बहुत प्रसन्न हुए । आते ही उन्होंने उसे बांहों में भर लिया। आर्य वज्र ने आचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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