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परि. ३ : कथाएं
के पास दस पूर्व पढ़ लिए। उन्होंने आचार्य से वाचना के लिए अनुज्ञा ली। आचार्य ने कहा- 'जहां उद्दिष्ट किया है, वहीं अनुज्ञा लो।' तब वे मुनियों के साथ दशपुर नगर लौट आए। वहां उन्होंने अनुज्ञा प्रारंभ की। भदेव अनुज्ञा की उपस्थापना करते हुए दिव्य पुष्प और चूर्ण वहां ले आए।
आचार्य सिंहगिरि ने गण का दायित्व वज्र स्वामी को देकर, स्वयं भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया और दिवंगत हो गए। आचार्य वज्र पांच सौ शिष्यों के साथ विहरण करने लगे। वे जहां भी जाते, उनका यशोगान होता। लोग कहते- 'अहो ! भगवान् आ गए। भगवान् आ गए।' वे भव्यजनों को प्रतिबोध देते हुए विहरण करने लगे।
पाटलिपुत्र नगर में धन नामक सेठ रहता था । उसकी पुत्री अत्यंत रूपवती थी। एक बार उसकी यानशाला में साध्वियां ठहरीं । वे परस्पर आर्य वज्र की गुणगाथाएं कहने लगीं। स्वभावतः लोग कामितकामुक होते हैं अतः श्रेष्ठीपुत्री ने सोचा- 'यदि आर्य वज्र मेरे पति हो जाएं तो मैं भोग भोगूंगी, अन्यथा भोगों से मुझे क्या ?' उसकी मंगनी के लिए अनेक युवक आते परन्तु वह प्रतिषेध करती रही। साध्वियों ने उसको कहा कि आर्य वज्र तो प्रव्रजित हैं, वे विवाह नहीं करेंगे। वह बोली- 'यदि वे विवाह नहीं करेंगे मैं भी प्रव्रजित हो जाऊंगी।' आर्य वज्र विहरण करते हुए पाटलिपुत्र में आए। वहां का राजा अपने परिवार के साथ तत्परता से गुरुवंदन के लिए अपने आवास से निकला । साधुओं के समूह एक-एक कर आने लगे। एक साधु की सुंदरता को देखकर राजा ने पूछा- 'क्या ये भगवान् वज्रस्वामी हैं ?' लोग बोले- 'नहीं, यह तो उनका शिष्य है ।' अन्तिम समूह आया । कुछ साधुओं के साथ वज्रस्वामी को देखा। लोगों ने कहा कि ये आचार्य हैं। आचार्य इतने सुंदर नहीं थे।
राजा ने उनको वंदना की। आचार्य वज्र उद्यान में ठहरे और प्रवचन किया। वे क्षीरास्रवलब्धि से संपन्न थे। राजा का मन उन्होंने जीत लिया। राजा ने अन्तःपुर में आचार्य के विषय में कहा तो सभी रानियां बोलीं- 'हम भी चलेंगी प्रवचन सुनने ।' पूरा अन्त: पुर दर्शनार्थ गया । उस श्रेष्ठीपुत्री ने लोगों से सब बात सुनी तो वह सोचने लगी- 'मैं भगवान् वज्र को कैसे देख पाऊंगी ?' दूसरे दिन उसने अपने पिता से कहा'आप मुझे वज्रस्वामी को दे देवें, अन्यथा मैं मर जाऊंगी ?' पिता उसे सर्वालंकार से भूषित कर, अनेक धनकोटियों को साथ ले घर से निकला । आचार्य ने धर्म का प्रवचन किया। क्षीरास्रवलब्धिसंपन्न आचार्य वज्र का प्रवचन सुनकर लोग कहने लगे- 'अहो ! भगवान् का स्वर बहुत मधुर है, ये सर्वगुणसंपन्न हैं । यदि रूप-संपन्नता होती तो सर्वगुणसंपन्न होते। '
आर्य वज्र ने लोगों के मानसिक भाव जान लिए। उन्होंने लक्षपत्रवाले कमल की विकुर्वणा की और उस पर बैठ गए। उन्होंने अपना बहुत सौम्य रूप बनाया। अब वे परम देव के सदृश दिखने लगे। लोगों ने लौटकर देखा और कहा - 'यह उनका स्वाभाविक रूप है। मैं किसी के लिए प्रार्थनीय न बनूं इसलिए विरूप रूप बनाकर रहते हैं। ये अतिशयशाली हैं।' राजा ने भी देखकर कहा - 'अहो ! भगवान् की ऐसी शक्ति भी है ।' आर्यवज्र ने अनगारगुणों का वर्णन करते हुए कहा - 'अनगार असंख्येय द्वीप - समुद्रों की विकुर्वणा कर आकीर्ण - विप्रकीर्ण करने में समर्थ होता है।' भगवान् ने उसी रूप में धर्म-प्रवचन किया। सेठ
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