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________________ ४१४ परि. ३ : कथाएं दीर्घसंसारी बनूंगा। अन्यथा मां भी प्रव्रजित होगी। यह सोचकर मां के द्वारा तीन बार बुलाने पर भी बालक वज्र मां की ओर नहीं गया। तब मुनि बने हुए पिता ने कहा- 'यदि तुमने प्रव्रज्या का मन बना लिया है तो वज्र! इस ऊपर उठाए हुए धर्मध्वज रजोहरण को आकर ले लो। यह कर्मरूपी रजों का अपहरण करने वाला है।' बालक वज्र तत्काल आगे आया और शीघ्रता से उसने रजोहरण को ग्रहण कर लिया। लोगों ने 'धर्म की जय हो' कहकर जोर से जयनाद किया। तब माता सुनन्दा ने सोचा- 'मेरा भाई, पति और पुत्र तीनोंप्रव्रजित हो गए। मैं अकेली घर में क्यों रहूं?' यह सोचकर वह भी प्रवजित हो गई। बालक वज्र ने जब स्तनपान करना छोड़ दिया, तब साध्वियों ने उसे प्रव्रज्या दे दी। वह साध्वियों के पास ही रहने लगा। ग्यारह अंग का पाठ करती हुई साध्वियों से उसने ग्यारह अंग सुने । सुनने मात्र से वह उनका ज्ञाता हो गया। मुनि वज्र पदानुसारी लब्धि से सपन्न थे। जब बालक मुनि वज्र आठ वर्ष के हुए तब साध्वियों के स्थान से वे आचार्य के पास आकर रहने लगे। आचार्य उज्जयिनी गए। वहां उस समय एकधार वर्षा बरस रही थी। उस समय आर्य वज्र के पूर्व मित्र मुंभक देव ने उस ओर जाते हुए वज्र को देखा। वे वज्र की परीक्षा करने के लिए वणिक् का रूप बनाकर आए और बैलों से समान उतार कर रसोई बनाने लगे। जब रसोई बन गई तब उन्होंने आर्य वज्र को भिक्षा के लिए निमंत्रित किया। वे भिक्षा के लिए निकले परन्तु पानी के फुहारें गिर रही थीं अत: वे लौट गए। फुहारें रुकी। वणिक् बंधुओं ने भिक्षा के लिए पुनः कहा। वज्र जब भिक्षा हेतु वहां गए तो उन्होंने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से भिक्षा के लिए उपयोग लगाया। उन्हें प्रतीत हुआ कि द्रव्यतः पुष्प-फल आदि, क्षेत्रतः उज्जयिनी, कालतः प्रथम वर्षाकाल और भावतः वे वणिक् धरणिस्पर्श रहित खड़े थे तथा उनके नयन निमेष से रहित थे। आर्य वज्र ने जान लिया ये मनुष्य नहीं, देव हैं। उन्होंने उनसे भिक्षा लेने का निषेध कर दिया। देवता तुष्ट होकर बोले- 'हम तो तुमको देखने आए थे।' देवताओं ने तुष्ट होकर आर्य वज्र को वैक्रिय विद्या दी। एक बार आर्य वज्र जेठ के महीने में संज्ञाभूमि में गए। वहां भी देवों ने गृहस्थ का रूप बनाकर घेवर लेने के लिए उन्हें निमंत्रित किया। वहां भी आर्य वज्र ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में उपयुक्त होकर यथार्थ जान लिया और भिक्षा लेने से इन्कार कर दिया। देवों ने तब प्रसन्न होकर उन्हें आकाशगामिनी विद्या दी। इस प्रकार आर्य वज्र विचरण करने लगे। उन्होंने पदानुसारी लब्धि से जैसे-तैसे जो ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त किया था, वह ज्ञान मुनियों के मध्य स्थिर हो गया। वहां जो मुनि पूर्वगत पढ़ रहे थे, वह ज्ञान भी आर्य वज्र ने कर लिया। इस प्रकार उन्होंने बहुत ज्ञान प्राप्त कर लिया। जो ज्ञान गृहीत था, उसे वे बार-बार प्रत्यावर्तन करते और नया सुनते रहते। एक बार मुनि भिक्षा के लिए चले गए। मध्याह्न का समय था। आचार्य संज्ञाभूमि के लिए गए। आर्य वज्र मूल उपाश्रय में ही रहे। उन्होंने अन्यान्य साधुओं के कंबलों की मंडली बनाकर सामने रख दी और स्वयं मध्य में बैठकर वाचना देने लगे। वाचना की परिपाटी में ग्यारह अंगों तथा पूर्वगत की वाचना देने लगे। आचार्य संज्ञाभूमि से लौटे। भीतर से आने वाली गुनगुनाहट को सुनकर आचार्य ने सोचा-'भिक्षा के लिए निर्गत मुनि शीघ्र ही लौट आए हैं।' भीतर से आने वाले शब्दों को सुनते हुए आचार्य बाहर ही ठहर गए। शब्द ऐसे गंभीर थे मानो मेघ मंद-मंद गर्जन कर रहे हों। आचार्य ने आर्य वज्र की आवाज को पहचान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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