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आवश्यक नियुक्ति
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उद्यान था। उसके मध्यभाग में सुरप्रिय नामक यक्षायतन था। उस नगरी का राजा वासुदेव कृष्ण था।
एक बार भगवान् अरिष्टनेमि द्वारिका नगरी में विराज रहे थे। अरिष्टनेमि के अंतेवासी छह भाई भी बेले-बेले की तपस्या करते हुए वहीं विचरण कर रहे थे। एक बार पारणे के दिन दो युगल देवकी के घर में प्रविष्ट हुए। उनको देखकर प्रसन्नमना वह भद्रासन से उठी और उनको केशरिया मोदक से प्रतिलाभित किया। थोड़ी देर बाद मुनियों का दूसरा और फिर तीसरा युगल उसके घर पहुंचा। उनको केशरिया मोदक की भिक्षा देकर देवकी बोली- 'कृष्ण वासुदेव की इस द्वारिका नगरी में क्या साधुओं को भिक्षा नहीं मिलती जो उन्हीं घरों में उन्हीं साधुओं को बार-बार आना पड़ता है।' अंतिम युगल में देवयश अनगार बोला- 'तुम्हारा सोचना यथार्थ नहीं है। हम छह भाई रूप-रंग और आकार-प्रकार में एक जैसे हैं।' युगल रूप में तीन बार तुम्हारे घर अलग-अलग साधु आए हैं। जो पहली बार आए, वे दुबारा नहीं आए हैं।
मुनि की बात सुनकर देवकी सोचने लगी कि पोलासपुर नगर में अतिमुक्तक अनगार ने कहा था कि तुम नलकुबेर के समान आठ पुत्रों की माता बनोगी लेकिन वर्तमान में यह बात असत्य प्रतीत हो रही है अत: मैं स्वामी अरिष्टनेमि के पास जाकर इस संदर्भ में पृच्छा करूंगी। भगवान् अरिष्टनेमि ने उसके मनोगत भावों को जानकर कहा-'अतिमुक्तक मुनि ने जो कहा, वह सत्य है। भद्रिलपुर नगर में नाग गृहपति की पत्नी का नाम सुलसा था। एक बार नैमित्तिक ने उससे कहा-'तुम मृत संतान पैदा करोगी।' सुलसा बचपन से ही हरिणेगमेषी देव की भक्ता थी। उसने भक्ति-बहुमान पूर्वक देव की आराधना की। प्रसवकाल की समाप्ति पर उसने और तुमने एक साथ प्रसव किया। उसने आठ मृत संतान का प्रसव किया
और तुमने देवकुमार सदृश आठ पुत्रों को जन्म दिया। हरिणेगमेषी देव ने अनुकम्पावश तुम्हारे पुत्रों को उसके पास तथा उसकी मृत संतान को तुम्हारे पास रख दिया। इसलिए आज जो मुनि भिक्षार्थ तुम्हारे घर आए थे, वे तुम्हारे ही पुत्र थे, सुलसा के नहीं।'
यह सुनकर देवकी आश्चर्यचकित रह गई। उसने अरिष्टनेमि को वंदना की। वहां से वह छहों अनगारों के पास गयी और वंदना करके उनको हर्ष-मिश्रित आंसुओं से युक्त आंखों से अनिमेष देखने लगी। वह सोचने लगी, मैंने एक जैसे सात पुत्रों को जन्म दिया लेकिन बचपन में किसी का अपने हाथों से लालन-पालन नहीं किया। यह कृष्ण वासुदेव भी छह-छह महीनों से मेरे पास पाद-वंदन के लिए आता था। वे माताएं धन्य हैं, जो अपनी कुक्षि से उत्पन्न बच्चों को स्तन का दूध पिलाती हैं, उनसे तुतली भाषा में मधुर संलाप करती हैं और उनको अपनी गोद में लेकर क्रीड़ा करती हैं। मैं अधन्य माता हूं, जो एक बालक को भी स्तनपान नहीं करा सकी। चिंतन करते हुए वह उदास हो गयी। उसी समय कृष्ण वासुदेव पाद-वंदन हेतु आए। पाद-वंदन करके कृष्ण ने पूछा-'मातुश्री ! मुझे देखकर आप सदा प्रसन्नवदन हो जाती हैं लेकिन आज आपका मुख उदास क्यों है?' तब देवकी ने अपने मन का सारा दुःख वासुदेव कृष्ण को सुना दिया। कृष्ण ने कहा- 'मैं देवप्रभाव से प्रयत्न करूंगा, जिससे मेरे एक सहोदर और हो सके।' कृष्ण ने देव की आराधना की। देव ने कहा- 'देवलोक से च्युत होकर देवकी की कुक्षि से एक पुत्र का जन्म होगा, जो तुम्हारा सहोदर होगा।' उत्पन्न बालक हाथी के तालु के समान कोमल था अतः उसका नाम गजसुकुमाल रख दिया गया। वह बालक सभी यादवों को अत्यन्त प्रिय था। वह सुखपूर्वक वृद्धिंगत होने लगा।
द्वारिका नगरी में सोमिल नामक धनाढ्य ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सोमश्री और पुत्री का नाम सोमा था। वह रूप-यौवन और लावण्य में उत्कृष्ट थी। एक बार वह अलंकृत-विभूषित होकर
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