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________________ ४०६ परि. ३ : कथाएं आचार्य बोले- “शिष्य! वानर की भांति तुम स्वयं को मेरे बराबर मानने लगे। मेरे लिए तो निर्जरा के अन्य कार्य भी हैं। उनसे बहुत निर्जरा होती है। यदि मैं वैयावृत्य में लग जाऊंगा तो उस निर्जरा लाभ से वंचित हो जाऊंगा। जैसे-वह वणिक्।' एक गांव में दो बनिये व्यापार करते थे। वर्षाकाल के प्रारंभ में एक बनिये ने सोचा-'आषाढी पूर्णिमा से पहले घर को वर्षाकाल के अनुरूप बनाना है, आच्छादित करना है। वर्षा का प्रारंभ है, इसलिए कर्मकरों को इस कार्य में नियोजित करने पर दाम देने पड़ेंगे।' यह सोचकर वह स्वयं व्यापार बंद कर इस कार्य में लग गया। दूसरे बनिये ने आधा अथवा त्रिभाग देकर घर को आच्छादित करवा लिया और स्वयं व्यापार में लगा रहा। उसको विपुल लाभ हुआ। पहला बनिया इस लाभ से वंचित रह गया। आचार्य बोले'वत्स! यदि मैं वैयावृत्य में लग जाऊंगा तो सूत्रार्थ का चिंतन-मनन नहीं कर सकूँगा।' इससे सूत्र और अर्थ की विस्मृति हो जाएगी। उनके नष्ट होने पर गण की सारणा-वारणा नहीं हो सकेगी। उसके अभाव में आज्ञा का प्रवर्तन न होने पर वह विलुप्त हो जाएगी और उसके नष्ट होने पर बहुत कुछ विलुप्त हो जाएगा। ९०. राग से होने वाला आयुष्य-भेद एक गांव से कुछ चोर गाएं चुराकर ले गए। ग्रामरक्षकों को ज्ञात होने पर वे कुपित होकर चोरों के पीछे गए और गाएं लेकर वापिस लौट आए। उन ग्रामरक्षकों में एक तरुण रक्षक भी था, जो विद्याधर की भांति अतिशय रूपधारी था। प्यास से आक्रान्त होकर वह मध्यगत एक गांव में पानी पीने के लिए गया। एक तरुणी उसे पानी पिलाने लगी। वह उसमें अनुरुक्त हो गई। तरुण के निषेध करने पर भी वह पानी उंडेलती रही। युवक उठकर चला गया फिर भी वह वैसे ही खड़ी रही। जब तक वह आंखों से ओझल नहीं हुआ, तब तक वह उसे एकटक निहारती रही। जब वह अदृश्य हो गया, तब उस तरुणी ने अत्यंत राग से वहीं प्राण त्याग दिए। ९१. स्नेह से आयुष्य-भेद एक वणिक् अपनी पत्नी में बहुत अनुरुक्त था। दोनों में परस्पर अतीव अनुराग था। एक बार वणिक् व्यापार के लिए परदेश चला गया। वह परदेश से लौट कर गांव में आया। घर जाने से पूर्व कुछ मित्र मिले। उसे वहीं रोक लिया। कुछ मित्र दोनों के परस्पर अनुराग की परीक्षा करने उसके घर गए और पत्नी से कहा-'सेठ मर गया। उसने पूछा- क्या यह सच है ?' उन्होंने कहा-'हां!' पत्नी ने तीन बार पूछा और मित्रों ने तीनों बार मरने की बात कही। वह वहीं ढेर हो गई। फिर मित्र वहां से वणिक् के पास गए और बोले-'मित्र! तुम्हारी पत्नी मर गई।' उसने आश्चर्यचकित होकर पूछा- 'क्या यह सच है ?' मित्रों ने कहा- 'सत्य है। यह सुनते ही उसने भी वहीं प्राण त्याग दिए। ९२. भय से आयुष्य-भेद (सोमिल ब्राह्मण) द्वारिका नगरी के उत्तरपूर्व दिशा में रेवतक नामक पर्वत था। उस पर्वत के पास ही नंदनवन नामक १. आवनि. ४३६/१५, आवचू. १ पृ. ३४४-३४६, हाटी. १ पृ. १७५, मटी. प. ३४५, ३४६ । २. आवनि. ४३७, आवचू. १ पृ. ३५५, हाटी. १ पृ. १८१, १८२, मटी. प. ३५५, ३५६। ३. आवनि ४३७, आवचू. १ पृ. ३५५, हाटी. १ पृ. १८२, मटी. प. ३५६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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