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आवश्यक नियुक्ति
४०५ करवाया तथा अच्छा भोजन दिया। फिर अनेक अलंकारों से उसे अलंकृत किया। मां के पास जाकर उसने सारी बात कही। मां बोली- 'वत्स! यह विनयगुण का प्रतिफल है। कल ऐसा मत करना। मुखयंत्र स्वयं ग्रहण मत करना।' दूसरे दिन उस अश्व किशोर ने मां के कथनानुसार स्वयं मुखयंत्र ग्रहण नहीं किया। राजा ने उसे चाबुक आदि से पीटा, बलपूर्वक मुखयंत्र डाला और उसको घुमाया तथा चारा-पानी भी बंद कर दिया। भूख से व्याकुल उस अश्व किशोर ने सारी बात मां से कही। मां बोली-'यह तुम्हारी दुश्चेष्टा और अविनय का फल है। तुमने दोनों मार्ग देख लिए हैं। अब जो रुचिकर लगे, उसका अनुसरण करो।' ८९. आचार्य द्वारा वैयावृत्य का प्रतिबोध (मरुक और वानर)
एक मुनि में वैयावृत्य करने की लब्धि थी पर वह बाल और वृद्ध मुनियों की वैयावृत्य नहीं करता था। आचार्य के द्वारा प्रेरित करने पर वह कहता- 'वैयावृत्य के लिए मुझसे कोई प्रार्थना नहीं करता। कोई मुझसे काम नहीं करवाना चाहता।' आचार्य ने प्रेरणा देते हुए कहा- 'प्रार्थना की प्रतीक्षा करते हुए तुम निर्जरा के लाभ से चूक जाओगे। जैसे ज्ञानमद से मत्त होकर वह ब्राह्मण।'
एक गांव में चौदह विद्यास्थानों का पारगामी एक ब्राह्मण रहता था। उसको अपने ज्ञान का बहुत अहंकार था। वहां का राजा कार्तिकपूर्णिमा के दिन जनता को दान देता था। ब्राह्मण दान लेने नहीं गया। ब्राह्मणी ने कहा- 'तुम सब ब्राह्मणों में प्रमुख हो, दान लेने जाओ राजा तुमको प्रचुर दान देगा।' उसने कहा- 'पहली बात तो यह है कि मैं शूद्र का प्रतिग्रह करूं? दूसरी बात बिना निमंत्रण के मैं उसके घर जाऊं? मैं मांगने नहीं जाऊंगा। जिसको माता-पिता आदि सात पीढ़ी का काम कराना हो, वह स्वयं यहां आकर दान दे।' ब्राह्मणी ने कहा- 'उसके पास तुम्हारे जैसे अनेक ब्राह्मण हैं। यदि धन चाहिए तो राजा के पास जाना ही पड़ेगा।' इस अहं के कारण वह यावजीवन दरिद्र ही रहा। गुरु ने कहा-'इसी प्रकार तुम भी वैयावृत्य की मार्गणा करते हुए निर्जरा के लाभ से वंचित रहोगे। इन बाल और वृद्ध मुनियों की वैयावृत्य करने के लिए तो दूसरे मुनि तैयार हैं। तुम्हारी यह शक्ति वैसे ही व्यर्थ चली जाएगी जैसे उस मरुक की। इस प्रकार कहने पर वह शिष्य बोला- 'यदि सेवा करना अच्छी बात है तो आप स्वयं क्यों नहीं करते?' यह सुनकर आचार्य बोले- 'तुम भी उस वानर के सदृश हो, जो हितकर शिक्षा देने पर सामने वाले का अहित करता है।'
एक वानर था। वह वृक्ष पर रहता था। वर्षाकाल में ठंडी हवाओं से वह कांप रहा था। उसी वृक्ष पर पक्षी का एक सुन्दर घोंसला बना हुआ था। उसमें रहने वाला पक्षी वानर से बोला- 'वानर ! तुम पुरुष हो। व्यर्थ ही दो-दो हाथों को ढो रहे हो। तुम वृक्ष के शिखर पर कुटिया क्यों नहीं बना लेते, एक छतनुमा घर सा बनाकर क्यों नहीं रहते?' वानर ने यह सुना। वह मौन रहा। पक्षी ने दो-तीन बार उससे कहा। वानर कुपित होकर वृक्ष पर चढ़ा। वह पक्षी अपने घोंसले में चला गया। वानर घोंसले के पास गया और उसका तिनका-तिनका बिखेर डाला और बोला-'न तुम मेरे मालिक हो और न ही मेरे मित्र अथवा बन्धु। हे सुगृहिक ! तुम दूसरों की चिन्ता करते हो अतः अब बिना घर के सुखपूर्वक रहो।' १. आवनि. ४३६/१३, आवचू. १ पृ. ३४३, ३४४, हाटी. १ पृ. १७४, मटी. प. ३४४ । २. बृभाटी. पृ. ५५० में केवल ब्राह्मण की कथा है।
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