SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 465
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०४ ८६. महावीर को कैवल्य-प्राप्ति वहां से भगवान् जृम्भिक ग्राम गए। उसके बाहरी भाग में व्यावृत्त नामक एक जीर्ण चैत्य था । ऋजुबालुका नदी के उत्तरी तट पर श्यामाक गाथापति का खेत था। वहां शालवृक्ष के नीचे भगवान् गोदोहिका आसन में सूर्य का आतप ले रहे थे । भगवान् के बेले की तपस्या थी । वैशाख शुक्ला दशमी का दिन था। चौथा प्रहर होने पर, विजय मुहूर्त्त में, चन्द्रमा के साथ उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र का योग होने पर शुक्लध्यान की आंतरिका में वर्तमान भगवान् ने एकत्व - वितर्क को व्यतिक्रान्त कर सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति को प्राप्त किया तब भगवान् को केवलज्ञान और केवलदर्शन की उपलब्धि हुई । ८७. वृद्धा दासी और वणिक् परि. ३ : | एक वणिक् था। उसके एक वृद्धा दासी थी । वह प्रभात में काठ का भारा लेने गई । वह प्यास और भूख से आकुल-व्याकुल होकर मध्याह्न में आई । काठ न्यून आया है, यह सोचकर वणिक् ने उसे पीटा और बिना भोजन कराए उसे पुनः काठ लाने भेज दिया। उस समय ज्येष्ठ मास चल रहा था। वह अटवी में जाकर काठ का बड़ा भारा लेकर आ रही थी । उस समय दिन का अंतिम प्रहर समीप था। चलते-चलते उसके काष्ठभार से एक लकड़ी नीचे गिर पड़ी। वह उसे लेने के लिए झुकी। उस समय भगवान् योजनगामिनी वाणी के द्वारा धर्मदेशना दे रहे थे। वे शब्द उस वृद्धा के कान में पड़े और जब तक देशना चलती रही, वह झुकी ही रही। उसे न गर्मी, न प्यास, न भूख और न श्रम का ही भान रहा । सूर्यास्त के समय जब भगवान् धर्म देशना से निवृत्त हुए, तब वह वृद्धा घर की ओर चली । ८८. विनय और अविनय का फल कथाएं वाह्लीक देश का एक अश्व किशोर था । राजपुरुषों ने उसका दमन करने एवं वाह्य बनाने के लिए विकालवेला में उसको अधिवासित किया। प्रभात में उसकी पूजा-अर्चा कर वे उसे वाह्यपंक्ति में ले गए। मुखयंत्र (कविक) उसके सामने रखा गया। वह विनीत था, इसलिए उसने स्वयं उस मुखयंत्र को ग्रहण कर लिया। राजा स्वयं उस पर आरूढ़ हुआ। वह राजा के अनुकूल चलने लगा। राजा उससे उतरा और समीचीन आहार-लयन आदि से उसकी प्रतिचर्या की । प्रतिदिन वह इसी प्रकार रहने लगा। उस पर कोई बलप्रयोग नहीं होता था । १. आवनि. ३४०, आवचू. १ पृ. ३२२, ३२३, हाटी. १ पृ. १५२, मटी. प. २९८ । २. आवनि. ३६२/२६, आवचू. १ पृ. ३३१, ३३२, हाटी. १ पृ. १५८, मटी. प. ३०८, ३०९ । मगध आदि जनपद में उत्पन्न एक अन्य अश्व किशोर था। राजा उसको भी दमित कर वाह्य बनाना चाहता था। उसको विकालवेला में अधिवासित किया गया। उसने मां से पूछा - 'यह क्या किया जा रहा है ?' मां ने कहा- 'कल तुम वाहन के रूप में प्रयुक्त किए जाओगे, तब तुम स्वयं मुखयंत्र ग्रहण कर राजा को तुष्ट करना। एक-एक कदम को सौ कदम जितना मापना।' अश्व ने कहा- 'ऐसा ही होगा।' दूसरे दिन कौतुक मंगल करने के बाद उसने स्वयं ही मुखयंत्र को ग्रहण कर लिया। संतुष्ट होकर राजा ने उसको स्नान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy