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________________ आवश्यक नियुक्ति ४०३ प्रकार का है-मूलगुणप्रत्याख्यान और उत्तरगुणप्रत्याख्यान । भगवान् जृम्भिका ग्राम में गए। वहां शक्र ने आकर वंदना कर नाट्य दिखाकर कहा- 'इतने दिनों के बाद आपको केवलज्ञान प्राप्त होगा।' वहां से भगवान् मिण्ढिका गांव में गए। वहां चमर ने आकर वंदना और सुखपृच्छा की तथा पुनः लौट गया।' ८५. ग्वाले द्वारा कान में शलाका ठोकना षण्माणी गांव के बाहर भगवान् प्रतिमा में स्थित हो गए। वहां एक ग्वाला अपने बैलों को छोड़कर गांव में गया। वह गायों, भैसों को दुहकर लौटा। वहां से वे बैल चरते-चरते अटवी में चले गए। उसने आकर पूछा-'देवार्य! बैल कहां हैं ?' भगवान् मौन रहे। तब उसने क्रुद्ध होकर भगवान् के कानों में बांस की शलाकाएं डाल दीं। एक इस कान में और दूसरी दूसरे कान में। जब दोनों मिल गईं तब मूल में उन्हें तोड़ डाला। जिससे उन्हें कोई कानों के बाहर न निकाल सके। भगवान् ने पूर्वभव में त्रिपृष्ठ वासुदेव राजा के रूप में गोप के कानों में गरम तांबा डलवाया था, उसी का यह परिणाम था। भगवान् के उस समय असह्य वेदनीय कर्म की उदीरणा हुई। भगवान् मध्यमा नगरी गए। वहां सिद्धार्थ नामक वणिक् रहता था। भगवान् उसके घर गए। सिद्धार्थ के एक खरक नामक वैद्य-मित्र था। वह उस समय वहीं था। भगवान् भिक्षा के लिए प्रविष्ट हुए। सिद्धार्थ ने भगवान् को वंदना और स्तुति की। वैद्य ने तीर्थंकर को देखकर कहा-'अहो! भगवान् सर्वलक्षणसंपन्न हैं फिर इनके शरीर में शल्य कैसे?' तब वणिक् ने वैद्य से कहा- 'देखो, शल्य कहां है?' कान में शल्य दिखा। वणिक् ने वैद्य से कहा-'इस महातपस्वी के शल्य को बाहर निकालो। तुम्हें पुण्य होगा और मुझे भी।' वणिक् बोला-'भगवान् निष्प्रतिकर्म हैं, वे चिकित्सा नहीं चाहते फिर भी इनकी चिकित्सा करनी है।' भगवान् उद्यान में जाकर प्रतिमा में स्थित हो गए। वणिक् और वैद्य औषधियां लेकर उद्यान में गए। उन्होंने भगवान् को तैलद्रोणी में निमज्जित किया, मर्दन किया। फिर अनेक लोगों द्वारा नियंत्रित कर संडास से खींचकर कान की शलाकाएं बाहर निकाली। वे शलाकाएं रक्त से सनी हुई थीं। उन शलाकाओं को निकालते समय भगवान् के मुख से जोर से आवाज निकली। शलाकाएं निकालने वालों के जाने पर भगवान् उठे। उद्यान तथा मंदिर अत्यंत भयानक हो गया। फिर वैद्य ने घाव पर व्रण-संरोहण औषधि का लेप किया। उससे भगवान् तत्काल स्वस्थ हो गए। वणिक् और वैद्य भगवान् को वंदना और क्षमायाचना कर चले गए। प्रश्न है कि सभी उपसर्गों में कौन सा उपसर्ग दुःसह था? कटपूतना द्वारा शीत की विकुर्वणा, कालचक्र या कानों से शल्य का उद्वतन। इस बारे में ऐसे कहा जा सकता है-कटपूतना का जघन्य, कालचक्र का मध्यम और शल्योद्धरण का उत्कृष्ट । इस प्रकार ग्वाले द्वारा आरब्ध उपसर्ग की परंपरा ग्वाले द्वारा ही समाप्त हुई। ग्वाला सातवीं नरक में तथा वणिक् सिद्धार्थ और वैद्य खरक देवलोक में गए। १. आवनि. ३३७, ३३८, आवचू. १ पृ. ३२०, ३२१, हाटी. १ पृ. १५०, १५१, मटी. प. २९७। २. आवनि. ३३९, आवचू. १ पृ. ३२१, ३२२, हाटी. १ पृ. १५१, मटी. प. २९७, २९८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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