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________________ ४०२ परि. ३ : कथाएं टूट गईं। पैरों में बेड़ियों के स्थान पर स्वर्ण के नुपूर हो गए। देवताओं ने सारे शरीर को अलंकृत-सुशोभित कर दिया। देवराज इन्द्र वहां आया। साढ़े बारह करोड़ सोनैयों की वृष्टि हुई। समूचे शहर में यह बात फैल गई। सभी पूछने लगे कि किस पुण्यात्मा ने भगवान् को दान से प्रतिलाभित किया? राजा अपने अन्तःपुर के साथ वहां आया। महाराज दधिवाहन का संपुल नामक कंचुकी वहां था। वह बंदी था, उसे वहां लाया गया। उसने चंदना को पहचान लिया। वह पैरों में गिर कर रोने लगा। राजा ने पछा-'यह चंदना कौन है?' उसने कहा-'यह महाराजा दधिवाहन की पुत्री वसुमती है।' तब मृगावती बोली-'यह मेरी बहिन की बेटी है।' अमात्य भी अपनी पत्नी नन्दा के साथ वहां आ गया। भगवान् को वंदना की। भगवान् वहां से चले गए। तब राजा शतानीक ने सोनैयों को बटोरना चाहा। शक्र ने मनाही करते हुए कहा-'चंदना जिसको देना चाहेगी, उसी की यह धनराशि होगी।' चंदना के पूछने पर उसने वह धन सेठ को देने को कहा। सेठ ने सोनये ले लिए । शक्र ने राजा शतानीक से कहा- 'यह चंदना चरमशरीरी है। इसकी तुम संरक्षा करो।' जब भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्राप्त होगा, तब यह प्रथम शिष्या बनेगी। राजा ने चंदना को कन्याओं के अन्तःपुर में रखा। वहां वह सुखपूर्वक बढ़ने लगी। भगवान् को जिस दिन चंदना ने भिक्षा दी, उस समय भगवान् की तपस्या के छह महीनों में पांच दिन न्यून थे। लोगों ने मूला सेठानी का तिरस्कार किया और उपालंभ दिया। ८३. भगवान् का सुमंगला आदि ग्रामों में आगमन वहां से भगवान् सुमंगला गांव में गए। वहां देव सनत्कुमार ने आकर वंदना-पूजा करके सुखपृच्छा की। वहां से भगवान् सुक्षेत्र गांव में गए। वहां माहेन्द्र ने आकर सुखपृच्छा की। वहां से भगवान् पालक गांव में गए। वहां वातबल नामक वणिक् यात्रा के लिए प्रस्थित हुआ। वह भगवान् के दर्शन को अमंगल मानकर तलवार से उनका शिरच्छेद करने चला। तब सिद्धार्थ ने उस वणिक् का हाथ सहित शिरच्छेद कर डाला। ८४. यक्षों द्वारा प्रश्न तथा इंद्र द्वारा कैवल्य की पूर्व सूचना वहां से भगवान् चंपा नगरी में स्वातिदत्त ब्राह्मण की अग्निहोत्रशाला में ठहरे। वहां वर्षावास बिताया। रात्रि में पूर्णभद्र और मणिभद्र नाम के दो यक्ष भगवान् की पूजा-उपासना करते। उन्होंने चार महीनों तक यह क्रम निभाया। उन्होंने सोचा कि इन्हें क्या पता कि देवता उपासना करते हैं? यह जताने के लिए उन्होंने भगवान् से पूछा- 'यह आत्मा कौन है ?' भगवान् बोले-'जो मैं हूं, वही आत्मा है।' फिर पूछा'आत्मा कैसा है ?' भगवान् ने कहा- 'वह सूक्ष्म है।' उन्होंने पूछा-'वह सूक्ष्म क्या है ?' भगवान् ने कहा-'जिसको हम ग्रहण नहीं कर सकते, वह सूक्ष्म है।' यक्षों ने फिर पूछा- 'शब्द, गंध और पवन को भी हम नहीं देखते, क्या वे भी सूक्ष्म हैं ?' भगवान् ने उत्तर नहीं दिया, वे सब इन्द्रियग्राह्य हैं। आत्मा ग्रहण करता है अत: वह ग्राहयिता है। स्वातिदत्त ने पूछा- 'भदन्त ! प्रदेशन और प्रत्याख्यान क्या है ?' भगवान् ने कहा-प्रदेशन के दो प्रकार हैं-धार्मिक और अधार्मिक। प्रदेशन का अर्थ है-उपदेश । प्रत्याख्यान भी दो १. आवनि. ३३४, ३३५, आवचू. १ पृ. ३१६-३२०, हाटी. १ पृ. १४८-१५०, मटी, प. २९४-२९६ । २. आवनि. ३३६, आवचू. १ पृ. ३२०, हाटी. १ पृ. १५०, मटी. प. २९६, २९७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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