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________________ ४०८ परि. ३ : कथाएं दासियों के साथ अपने घर से बाहर निकली और राजमार्ग में सोने की गेंद से खेलने लगी। उसी समय वासुदेव कृष्ण ने सुधर्मा सभा में कौमुदिकी भेरी को बजाया और परिषद् के साथ अरिष्टनेमि को वंदन करने निकले। गजसुकुमाल भी उनके साथ था। श्रीकृष्ण ने सोमिल ब्राह्मण की पुत्री सोमा को देखा और उसके रूप से विस्मित होकर पूछा- 'यह किसकी पुत्री है?' कौटुम्बिक पुरुषों ने उसके बारे में सारी जानकारी दी। कृष्ण ने कौटुम्बिक पुरुषों को आदेश दिया कि सोमिल ब्राह्मण से याचना करके इस सोमा को कन्या-अंतेपुर में रख दो। यह गजसुकुमाल की प्रथम पत्नी होगी। कौटुम्बिक पुरुषों ने उसे कन्या-अंतेपुर में रख दिया। कृष्ण भी सहस्राम्ब वन में स्वामी की पर्युपासना करने गये। धर्मकथा सुनकर परिषद् वापिस लौट गयी। गजसुकुमाल ने अरिष्टनेमि से कहा- 'मैं अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर आपके पास प्रव्रजित होना चाहता हूं।' उसने अपने माता-पिता से कहा- 'मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में प्रवजित होना चाहता हूं।' पिता ने कहा- 'तुम धन्य हो, कृतपुण्य हो, जो तुम्हें निर्ग्रन्थ प्रवचन में रुचि हुई है। देवकी गजसुकुमाल की बात सुनकर दु:खी और विषण्ण हो गयी।' आसूं बहाती हुई वह बोली'वत्स! मेरे लिए तुम अत्यन्त प्रिय पुत्र हो। मेरे हृदय को आनन्द उत्पन्न करने वाले हो अतः जब तक हम जीवित हैं तब तक तुम भोगों को भोगो। हमारे कालगत हो जाने पर तुम प्रव्रजित हो जाना।' गजसुकुमाल ने कहा- 'भोग तो छोड़ने ही हैं। समझदारी इसी में है कि वे हमें छोड़ें उससे पहले हम उन्हें छोड़ दें।' जब श्रीकृष्ण को गजसुकुमाल की दीक्षा की बात ज्ञात हुई तो वे उसके पास गए और उसको आलिंगनबद्ध करते हुए बोले- 'तुम मेरे छोटे भ्राता हो। तुम दीक्षा मत लो। मैं तुम्हारा राज्याभिषेक करना चाहता हूं।' कृष्ण के ऐसा कहने पर गजसुकुमाल ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया। श्रीकृष्ण ने कहा'अधिक नहीं तो एक दिन का राज्याभिषेक देखना चाहता हूं।' माता-पिता और कृष्ण के बहुत आग्रह करने पर गजसुकुमाल मौन रहा। मौन को स्वीकृति मानकर कृष्ण ने कौटुम्बिक पुरुषों को आदेश दिया कि शीघ्र ही गजसुकुमाल के लिए राज्याभिषेक की बहुमूल्य सामग्री प्रस्तुत करो। राज्याभिषेक करके श्रीकृष्ण ने निष्क्रमण-महोत्सव मनाया और गजसुकुमाल के साथ अरिष्टनेमि के समक्ष उपस्थित हुए। वे बोले'गजसुकुमाल हम सबका अत्यन्त प्रिय है। जैसे कमल पानी और कीचड़ में बढ़ता है लेकिन उससे लिप्त नहीं होता वैसे ही यह गजसुकुमाल भोगों में बड़ा हुआ है पर उनमें लिप्त नहीं है। यह संसार के भय से उद्विग्न है अतः आपके पास प्रव्रजित होना चाहता है। हम भगवान् को शिष्य की भिक्षा देना चाहते हैं। भगवान् कृपा करके शिष्य की भिक्षा स्वीकार करें।' भगवान् की स्वीकृति पाकर गजसुकुमाल उत्तरपूर्व दिशा में गया और सारे आभूषण उतार दिए। पंचमुष्टि लोच करके भगवान् को निवेदन किया- 'अब आपकी शरण में मैं आत्मकल्याण करना चाहता हूं।' अरिष्टनेमि ने प्रव्रजित करके उसको यतनापूर्वक सारी क्रिया करने का निर्देश दिया। गजसुकुमाल मुनि जिस दिन प्रव्रजित हुए, उसी दिन भगवान् अरिष्टनेमि के पास पहुंचे और तीन बार वंदना करके बोले- 'आपकी आज्ञा से मैं श्मशान में एकरात्रिकी प्रतिमा करना चाहता हूं।' भगवान् से आज्ञा प्राप्त करके वे श्मशान की प्रासुक भूमि में एकरात्रिकी प्रतिमा स्वीकार करके स्थित हो गए। सोमिल ब्राह्मण यज्ञ की लकडी लाने के लिए द्वारिका नगरी के बाहर गया हआ था। लौटते हए सन्ध्या के समय उसने श्मशान में मुनि गजसुकुमाल को ध्यानस्थ देखा। उनको देखकर उसके मन में वैर उभर आया। उसने सोचा- 'यह मेरी बेटी से विवाह किए बिना ही प्रव्रजित हो गया अत: आज वैर का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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