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________________ आवश्यक नियुक्ति ३९९ है। बहुत गया, अब अल्प शेष है। शीघ्र ही आपको केवलज्ञान उत्पन्न होगा।' वहां से भगवान् श्वेतविका नगरी में गए। वहां हरिस्सह इन्द्र सुखपृच्छा करने आया। वहां से भगवान् श्रावस्ती गए और बाह्य उद्यान में प्रतिमा में स्थित हो गए। वहां के लोग स्कन्दक प्रतिमा की पूजा करते थे। शक्र ने अवधिज्ञान का प्रयोग करके देखा कि लोग स्कन्दक प्रतिमा की पूजा कर रहे हैं और भगवान् का आदर-सत्कार नहीं कर रहे हैं तब शक्र वहां आया। स्कंदक की अलंकृत प्रतिमा रथ में स्थापित होने वाली थी। उस समय इन्द्र उस प्रतिमा में प्रविष्ट होकर भगवान् की ओर प्रस्थित हुआ। लोगों ने संतुष्ट होकर कहा- 'देव स्वयं रथ में आएगा परंतु वह प्रतिमा भगवान् के पास गई और भगवान् को वंदना करने लगी। तब लोगों ने कहा- 'ये देवाधिदेव हैं।' उन्होंने भगवान् की पूजा-अर्चा की। वहां से भगवान् कौशाम्बी नगरी गए। वहां सूर्य और चन्द्रमा-दोनों अपने विमान सहित आए, भगवान को वंदना कर सुखपृच्छा की। वाराणसी नगरी में शक्र ने आकर सखपच्छा की। राजगह में ईशान देवलोक के इन्द्र ने आकर सुखपृच्छा की। मिथिला में राजा जनक ने भगवान् की पूजा-अर्चा और धरणेन्द्र ने आकर सुखपृच्छा की। वहां से भगवान् विशाला नगरी गए और ग्यारहवां वर्षावास बिताया। भूतानन्द देव ने वहां आकर सुखपृच्छा की और केवलज्ञान की बात कही। वहां से भगवान् सुंसुमारपुर गए। चमर के उत्पात' का यही स्थान था। वहां से भगवान् भोगपुर गए। वहां महेन्द्र नामक क्षत्रिय भगवान् को देखकर खर्जूरीकंद से उनको मारने दौड़ा। इतने में ही सनत्कुमार देव वहां आ पहुंचा और उसकी ताड़ना-तर्जना की। उसने भगवान् की प्रियपृच्छा की। वहां से नन्दीग्राम में भगवान् के प्रियमित्र नन्दी ने भगवान् की पूजा-अर्चा की। वहां से भगवान् मेंढिकाग्राम गए। वहां ग्वाले ने कर्मार ग्राम की भांति उपसर्ग दिया। इन्द्र ने उसे रज्जू से पीटा। ८२. चंदनबाला का उद्धार कौशाम्बी के राजा का नाम शतानीक और रानी का नाम मृगावती था। वहां तत्त्ववादी नामक धर्मपाठक रहता था। वहां के अमात्य का नाम सुगुप्त और उसकी भार्या का नाम नन्दा था। वह श्रमणोपासिका थी। वह मृगावती की साधर्मिणी थी। उसी नगर में धनावह श्रेष्ठी रहता था। उसकी पत्नी का नाम मूला था। वे सभी अपने-अपने कार्यों में तल्लीन थे। वहां भगवान् ने पौष के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को एक अभिग्रह स्वीकार किया। उस अभिग्रह के चार कोण थे-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतःद्रव्यतः-छाज के कोने में उड़द हों। क्षेत्रतः-घर की देहली का अतिक्रमण। कालतः-सभी भिक्षाचर भिक्षा लेकर निवृत्त हो गए हों। भावतः-राजा की पुत्री हो, दासत्व को प्राप्त हो, सांकल से बंधी हुई हो, शिर मुंडा हुआ हो, आंखों में आंसू हो, तीन दिन की तपस्या हो-इस प्रकार की संयुति से ही मुझे आहार-पानी लेना है, अन्यथा नहीं। इस १. चमर के उत्पात का वर्णन देखें भगवई। २. आवनि. ३३०-३३३, आवचू. १ पृ. ३१५, ३१६, हाटी. १ पृ. १४७, १४८, मटी. प. २९३, २९४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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