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________________ ३९८ परि. ३ : कथाएं धर्माचार्य रात को यहां सेंध लगाने आएंगे। उनके पैरों में कांटे न चुभे, वे सुखपूर्वक सेंध लगा सकें इसलिए मैं यहां आया हूं।' लोगों ने पूछा- 'तुम्हारे धर्माचार्य कहां हैं ?' देव ने कहा- 'अमुक उद्यान में स्थित हैं।' लोगों ने वहां जाकर भगवान् को देखा। उनके पास उपकरण पड़े थे। लोग भगवान् को पकड़कर ले जाने लगे। वहां भगवान् का प्रियमित्र सुमागध नामक राष्ट्रिक आया और भगवान् को छुड़वाया। वहां से भगवान् तोसलि ग्राम गए। वहां भी भगवान् को ऐसे ही पकड़ा और फांसी पर चढ़ाया। फांसी का रस्सा बीच में ही टूट गया। सात बार ऐसे ही रस्सी एक सिरे से टूट गई। तब फांसी लगाने वाले लोगों ने तोसलिक क्षत्रिय से सारी बात कही। उसने कहा- 'यह निर्दोष है, चोर प्रतीत नहीं होता। उस क्षुल्लक की खोज करो। क्षुल्लक की खोज करने पर वह नहीं मिला तो लोगों ने जान लिया कि यह देवकृत उपसर्ग था। वहां से भगवान् सिद्धार्थपुर गए। वहां भी चोरी के आरोप में भगवान् को पकड़ा। वहां कौशिक नामक अश्ववणिक ने भगवान को पहले कंडपर में देखा था। उसने भगवान को मक्त करवाया। वहां से भगवान् वज्रगांव के गोकुल में गए। वहां उत्सव के कारण सब घरों में परमान्न का भोजन था। भगवान् ने सोचा- 'छह मास बीत गए अब वह देव चला गया होगा। भगवान् भिक्षा के लिए गये। देव ने अनेषणा कर दी। भगवान् ने अवधिज्ञान से देखा अतः भिक्षार्थ गए हुए आधे रास्ते से ही वापिस लौट गए और गांव के बाहर प्रतिमा में स्थित हो गए। देव ने अवधिज्ञान से देखा कि भगवान् के परिणाम विचलित हुए या नहीं? उसने देखा कि भगवान् पूर्ववत् शुद्ध परिणामों की श्रेणी में स्थित तथा षड्जीवनिकाय के प्रति हितचिंतन में लीन थे। भगवान् को उस रूप में देखकर उसने सोचा- 'भगवान् को क्षुब्ध करना शक्य नहीं है। जो छह महीनों में विचलित नहीं हुए, उनको दीर्घकाल में भी क्षुब्ध करना संभव नहीं है।' वह भगवान् के चरणों में गिरकर बोला- 'भंते! जो इंद्र ने कहा वह सत्य है। मैं भग्नप्रतिज्ञ हूं और आप सत्यप्रतिज्ञ हैं। मैं जा रहा हूं। आप कहीं घूमें अब मैं कोई उपसर्ग नहीं करूंगा।' भगवान् बोले- 'संगम ! मैं किसी के कहने से कुछ नहीं करता। अपनी इच्छा होती है तो घूमता हूं, अन्यथा नहीं।' दूसरे दिन उसी गोकुल में भगवान् भिक्षा के लिए गए। वहां वत्सपालिका नामक एक वृद्धा ने भगवान् को बासी खीर से प्रतिलाभित किया। वहां पांच दिव्य प्रादुर्भूत हुए। सौधर्म देवलोक में संगम की प्रतिज्ञा के दिन से सभी देव उद्विग्न थे। संगम देवलोक में पहुंचा। शक्र उसे देखते ही मुंह फेर कर बैठ गया। उसने देवताओं को संबोधित कर कहा- 'देवगण! सुनो, यह संगम दुरात्मा है।' इसने न मेरी और न देवताओं के चित्त की रक्षा की है। इसने तीर्थंकर की आशातना की है। इससे हमारा अब कोई प्रयोजन नहीं है। इसके साथ कोई भाषण न करे। इसको यहां से निकाल देना चाहिए। तब संगम अपनी देवियों के साथ पानक विमान से मंदरचूलिका पर आ गया। शेष देवों को इन्द्र ने उसको सम्मान आदि देने से रोक दिया। उस समय संगम देव के सागरोपम की स्थिति शेष थी। ८१. इंद्रों द्वारा भगवान् की अर्चा एवं अन्य उपद्रव वहां से भगवान् आलभिका नगरी में गए। विद्युत्कुमार का इन्द्र हरि वहां आकर भगवान् को वंदना और पूजा करके बोला-'भगवन् ! आपकी सुखपृच्छा कर रहा हूं। सभी उपसर्गों को आपने पार पा लिया १. आवनि. १ पृ. ३२२-३२९, आवचू. १ पृ. ३११-३१४, हाटी. १ पृ. १४५-१४७, मटी. प. २९१-२९३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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