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________________ परि. ३ : कथाएं I अभिग्रह को स्वीकार कर भगवान् कौशाम्बी में स्थित थे । वे प्रतिदिन भिक्षाचर्या के लिए जाते क्योंकि भिक्षाचर्या में बावीस परीषहों की उदीरणा होती है। चार मास तक भगवान् कौशाम्बी में घूमते रहे। एक दिन वे अमात्य सुगुप्त के घर में प्रविष्ट हुए । अमात्य - पत्नी नन्दा ने भगवान् को जाना-पहचाना। उसने परम आदरभाव से भिक्षा देनी चाही। स्वामी बिना कुछ ग्रहण किए चले गए। नन्दा खिन्न हो गई। उसकी दासियों ने कहा- 'देवार्य यहां प्रतिदिन आते हैं, परंतु भिक्षा नहीं लेते।' तब उसने सोचा- 'निश्चित ही भगवान् के कोई अभिग्रह है।' उसकी खिन्नता बढ़ी । अमात्य घर आया तब उसने नंदा से खिन्नता का कारण पूछा। उसने कहा- 'आपके अमात्यत्व का क्या प्रयोजन है ? भगवान् को इतने दिनों से भिक्षा नहीं मिली। हमारे ज्ञान का भी क्या प्रयोजन है ? यदि हम उनके अभिग्रह को नहीं जान सके।' अमात्य ने नंदा को आश्वस्त करते हुए कहा - 'कल भगवान् को भिक्षा मिल सके, वैसा प्रबंध करूंगा।' प्रतिहारी विजया किसी कारणवश नंदा के घर गई थी। उसने भगवान् के विषय में बात सुनी और सारी बात महारानी मृगावती 'कही । मृगावती बहुत दुःखी और खिन्न हो गई । वह चेटक की पुत्री थी । राजा के पूछने पर उसने कहा- 'आपको राज्य से क्या ? आपको मेरे से भी क्या प्रयोजन ? भगवान् महावीर इतने समय से शहर में घूम रहे हैं और आपको उनके भिक्षा संबंधी अभिग्रह भी ज्ञात नहीं हैं ।' राजा ने रानी को यह कहकर आश्वस्त किया कि मैं वैसा प्रबंध करता हूं, जिससे कल उनको भिक्षा मिल जाए। उन्होंने अमात्य सुगुप्त को बुलाया और उपालंभ की भाषा में कहा - 'तुम भगवान् के आगमन की बात भी नहीं जानते। उनको यहां घूमते हुए चार मास बीत गए हैं।' फिर तत्त्ववादी धर्मगुप्त को बुलाकर शतानीक ने पूछा - 'तुम्हारे शास्त्र में सभी व्रीर्थंकरों के आचार का वर्णन आया है, वह मुझे बताओ।' अमात्य से कहा - 'तुम भी अपने बुद्धिबल से बताओ।' दोनों ने कहा- 'शास्त्रों में अनेक प्रकार के अभिग्रह हैं। पता नहीं, महावीर के कौनसा अभिग्रह है ? द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से संयुक्त सात पिंडेषणाएं और सा पानैषणाएं हैं। उनमें भगवान् के क्या संकल्प हैं, यह ज्ञात नहीं है।' तब राजा ने लोगों को सारी बात समझाई। परलोक के कांक्षी लोगों ने वैसा ही करने का वचन दिया । भगवान् भिक्षा के लिए आए, परन्तु किसी से भगवान् ने कुछ भी ग्रहणे नहीं किया । इधर महाराज शतानीक ने महाराजा दधिवाहन का निग्रह करने के लिए चंपा नगरी पर आक्रमण कर दिया । वह एक ही रात में नौसेना द्वारा चंपा पहुंच गया और अकल्पित रूप से नगरी को घेर लिया। दधिवाहन पलायन कर गया। शतानीक ने युद्ध की घोषणा कर दी। दधिवाहन की रानी धारिणी देवी और उसकी पुत्री वसुमती - दोनों को एक नाविक उठाकर ले गया। राजा शतानीक विजय प्राप्त कर चला गया। उस नाविक ने सोचा, इसे मैं अपनी पत्नी बना लूंगा और लड़की को बेचकर धन कमा लूंगा । धारिणी अत्यंत दुःखी हो गई। लड़की की चिन्ता से दुःखी होकर धारिणी ने प्राण त्याग दिए। तब नाविक ने सोचा- 'मैंने उचित नहीं कहा कि यह महिला ( धारिणी) मेरी पत्नी हो जाएगी।' इस लड़की को मैं अब कुछ भी नहीं कहूंगा, कहीं यह भी प्राण त्याग न कर बैठे और मुझे धन भी न मिले। वह कौशाम्बी में आया और बाजार में लाकर, उसे ऊंचे स्थान पर खड़ी कर बेचने का एलान कर दिया । धनावह सेठ ने देखा । उसने सोचा, बिना किसी अलंकार के यह कन्या इतनी लावण्यमयी है, प्रतीत होता है कि यह किसी राजा अथवा धनाढ्य ४०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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