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________________ ३९६ परि. ३ : कथाएं नहीं हुए तब नेवले आए। वे अपनी तीक्ष्ण दाढ़ा से भगवान् को काटने लगे। उन्होंने शरीर के टुकड़ों को नोच-नोच कर बाहर निकाल दिया। इसके बाद संगम देव ने सर्पो की विकुर्वणा की। वे विष के रोष से परिपूर्ण, उग्रविष युक्त तथा दाहज्वर पैदा करने वाले थे। उन्होंने भगवान् को डसा पर भगवान् अविचलित रहे। तब चूहों का दल आया। वे शरीर के खंडों को निकाल कर वहीं मल-मूत्र का विसर्जन करने लगे इससे भगवान् को अतुल वेदना हुई। जब इससे भी भगवान् पराजित नहीं हुए तब हाथियों की टोली आई। एक हाथी ने भगवान् को सूंड में पकड़ा और सात-आठ ताल-हाथ आकाश में उछाल कर अपने दंतशूलों में थामा। फिर भूमि पर पटककर वींधा और पहाड़ जैसे भारी-भरकम पैरों से कुचला। इतने पर भी भगवान् विचलित नहीं हुए, तब हथिनी का रूप बनाकर भगवान् को सूंड से, दांतों से वींधा, शरीर को फाड़कर उसको मूत्र से सींचा और पैरों तले कुचल कर मसल डाला। इतने पर भी भगवान् का ध्यान भग्न नहीं हुआ तो देव ने पिशाच और व्याघ्र के रूप की विकुर्वणा की। उन्होंने दाढाओं और नखों से भगवान् को विदारित किया तथा क्षारयुक्त पेशाब से उनके शरीर को सींचा। जब इन सब प्रकार के उपसर्गों से भगवान् चलित नहीं हए तब संगम देव ने अनकल उपसर्गों का सहारा लेते हए सबसे पहले सिद्धार्थ राजा का रूप बनाया और करुण-क्रन्दन करते हुए बोला- 'पुत्र! घर चलो। हमें मत छोड़ो। फिर त्रिशला का रूप बनाकर सामने आया। वैसे ही करुण विलाप किया। इसके पश्चात रसोइया बनकर सामने आया। उसने निकट ही एक स्कन्धावार की विकुर्वणा की। पत्थर न मिल सकने पर रसोइये ने भगवान् के दोनों पैरों के बीच अग्नि जलाकर पकाने का पात्र रखा। जब इससे भी भगवान् विचलित नहीं हुए, तब एक चांडाल के रूप की विकुर्वणा की। उसने पक्षी युक्त पिंजरों को, भगवान् की भुजाओं में, गले में तथा कानों में टांग दिया। उनमें रहे हुए पक्षी भगवान् को काटने लगे, वींधने लगे और मल-मूत्र का विसर्जन करने लगे। भगवान् के विचलित न होने पर मंदर पर्वत को विचलित करने वाली खरवात वायु की विकुर्वणा की। फिर भी भगवान् अविचल रहे । उस वायु ने भगवान् को ऊपर उठा-उठा कर भूमि पर पटका। इसके बाद कलंकलिका वायु का तूफान आया। उसने भगवान् को चक्र की भांति घुमाना प्रारंभ किया। फिर नंद्यावर्त वायु चली। जब वह भी भगवान् को विचलित करने में असमर्थ हुई तब उसने कालचक्र को आकाश में उछाला और भगवान् को मारने के लिए उसे छोड़ा। वह वज्रसदृश कालचक्र ऐसा था कि मंदर को भी चूर-चूर कर डाले। उसके प्रहार से भगवान् पूरे के पूरे भूमि में दब गए। केवल हाथ के अग्रनखमात्र दृष्टिगोचर हो रहे थे। जब इन सब प्रहारों से भगवान् का बाल भी बांका नहीं हुआ तब संगम देव ने सोचा कि इनको मारना या विचलित करना शक्य नहीं है। मुझे अनुलोम उपसर्ग उपस्थित कर इनको विचलित करना चाहिए। यह विचार कर संगम देव ने प्रभात काल की विकुर्वणा की। सभी लोग इधर-उधर आने-जाने लगे। उन्होंने भगवान् से कहा'देवार्य! अभी तक यहीं खड़े हो?' भगवान् ने अपने ज्ञान से जान लिया कि अभी प्रभात नहीं हुआ है। यह बीसवां उपसर्ग था। कुछ लोगों की मान्यता के अनुसार संगम देव बोला- 'मैं तुम पर तुष्ट हूं। बोलो, क्या दूं? तुम्हारे शरीर को स्वर्ग में ले जाऊं अथवा मोक्ष में? अथवा तीनों लोकों को तुम्हारे पैरों में लाकर गिरा दूं।' जब भगवान् इस प्रलोभन में नहीं आए तब वह लौट गया और सोचा कि कल फिर उपसर्ग करूंगा। १. आवनि. ३१३-३२१, आवचू. १ पृ. ३०१-३१०, हाटी. १ पृ. १४४, १४५, मटी. प. २८९-२९१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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