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________________ आवश्यक नियुक्ति ३९५ श्रावक बेले-बेले की तपस्या करता था। उसको अवधिज्ञान प्राप्त हुआ। उसने तीर्थंकर को देखा और वंदना करके बोला- 'अहो! अभी भगवान् को उपसर्ग सहन करने हैं। इतने समय के पश्चात् आपको केवलज्ञान होगा, उसने भगवान् की पूजा-अर्चना की। ७८. प्रतिमाओं की विशिष्ट साधना एवं पारणा वहां से भगवान् श्रावस्ती नगरी में गए। वहां दसवां वर्षावास बिताया। अनेक प्रकार के तपोनुष्ठान किए। वहां से सानुलष्टिक ग्राम गए। वहां भद्रा, महाभद्रा, सर्वतोभद्रा प्रतिमाओं की एक साथ साधना की। प्रतिमाओं को संपन्न कर भगवान् ने आनन्द गाथापति के घर में बाहुलिका दासी के हाथ से पारणा ग्रहण किया। दासी रसोई के बर्तन साफ करते समय जो बासी अन्न बचा था, उसे फेंकने के लिए बाहर जा रही थी। उसी समय भगवान् उसके घर में प्रविष्ट हुए। उसने पूछा- 'भंते! किस प्रयोजन से आए हैं?' स्वामी ने हाथ फैलाए। उसने परम श्रद्धा से बासी भोजन भगवान् को दिया। पांच दिव्य प्रकट हुए। ___ वहां से भगवान् दृढभूमि गए। गांव की बाहिरिका में पेढाल नामक उद्यान में पोलास चैत्य था। वहां भगवान् ने तेले की तपस्या कर एकरात्रिकी प्रतिमा में अनिमेषदृष्टि से एक पुद्गल पर दृष्टि को स्थापित कर ध्यान किया। इस ध्यान में अचित्त पुद्गलों पर ही दृष्टि टिकाई, सचित्त पुद्गलों से दृष्टि हटा ली। वे ईषत् अवनतकाय मुद्रा में रहे। ७९. संगम देव द्वारा बीस मारणांतिक कष्ट इन्द्र ने भगवान् की साधना को अवधिज्ञान से देखा। वह सुधर्मा सभा में बैठे-बैठे भगवान् को वंदना करके बोला-'अहो! आप त्रिलोक को जीत चुके हैं। कोई भी देव या दानव आपको विचलित नहीं कर सकता। संगम देव ने यह सुना।' वह सौधर्म देवलोक के इन्द्र का सामानिक अभव्यसिद्धिक देव था। उसने कहा- 'इन्द्र ने राग के वशीभूत होकर ऐसा कहा है। कौन पुरुष ऐसा होगा, जो देवों से विचलित न हो। मैं उसे विचलित करूंगा।' इंद्र ने सोचा- 'मैं अगर इसको रोदूंगा तो इसका अर्थ होगा महावीर दूसरों के सहारे तपस्या कर रहे हैं।' भगवान् तो अनंतबली हैं ऐसा सोचकर इंद्र मौन रहा। वह संगम देव वहां से चलकर भगवान् के पास आया। सबसे पहले उसने प्रतिमा में स्थित भगवान् पर वज्रधूलि की वर्षा की। उससे आंख, नाक, कान आदि सारे शरीर के स्रोत धूलि से भर गए। श्वास तक रुक गया। स्वामी तिलतुषमात्र भी ध्यान से विचलित नहीं हुए। तब देव ने थककर धूलि का संहरण कर तीक्ष्ण मुंह वाली चींटियों की विकुर्वणा की। वे चारों ओर शरीर को काटने लगीं। वे शरीर के एक स्रोत से प्रवेश कर दूसरे स्रोत से बाहर निकलतीं। वे शरीर के भीतर चारों ओर व्याप्त हो गईं। शरीर चलनी जैसा हो गया, फिर भी भगवान् ध्यान से चलित नहीं हुए। तब देव ने वज्रमुखी खटमलों की विकुर्वणा की। वे एक ही प्रहार (दंश) से शरीर का लहु निकाल देते थे। भगवान् ध्यान में अप्रकंपित थे। तत्पश्चात् वज्रमुखी तिलचट्टों की बाढ़ आ गई। वे तीक्ष्ण दंस देने लगे। जैसे-जैसे उपसर्ग आते गए, वैसे-वैसे भगवान् की ध्यानधारा प्रबल होती गई। फिर देव ने बिच्छुओं से भगवान् को सताया। जब इनसे भी भगवान् विचलित १. आवनि. ३१०, आवचू. १ पृ. ३००, हाटी. १ पृ. १४३, मटी. प. २८८। २. आवनि. ३११, ३१२, आवचू. १ पृ. ३००, ३०१, हाटी. १ पृ. १४३, १४४, मटी. प. २८८, २८९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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