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________________ ३९४ परि. ३ : कथाएं ही कहा । तपस्वी वैश्यायन रुष्ट होकर उठा और तेजोलेश्या निकाली। यह देखकर भगवान् ने तपस्वी की उष्णजलब्धि को प्रतिहत करने के लिए शीतल तेजोलेश्या निकाली। भगवान् की वह शीतल तेजोलेश्या जंबूद्वीप को भीतर से परिवेष्टित कर रही थी। तपस्वी की उष्णतेजोलेश्या गोशालक के निकट आते ही शीतल हो गई। तपस्वी ने भगवान् की ऋद्धि देखकर पूछा- 'भगवन्! तेजोलेश्या प्रतिहत हो गई। मैं नहीं जानता था कि यह गोशालक आपका शिष्य है। आप क्षमा करें।' गोशालक ने भगवान् से पूछा - 'स्वामिन् ! यह जूओं का शय्यातर क्या कह रहा है ?' स्वामी ने सारी बात बताई तब वह भयभीत होकर बोला'भगवन्! संक्षिप्त - विपुल तेजोलेश्या कैसे उत्पन्न होती है ?' भगवान् बोले- 'गोशालक ! जो व्यक्ति छह महीने तक बेले-बेले की तपस्या करके निरंतर आतापना लेता है, पारणक में सनख कुल्माषपिंड खाता है। तथा एक चुल्लू भर प्रासुक जल पीता है, उस मनुष्य के संक्षिप्त-विपुल तेजोलेश्या उत्पन्न होती है । " ७५. गोशालक द्वारा नियतिवाद का ग्रहण एक बार भगवान् कूर्मग्राम से सिद्धार्थपुर की ओर प्रस्थित हुए। वे उस तिलस्तम्ब के निकट से गुजर रहे थे। गोशालक बोला- 'भंते! वह तिलस्तंब निष्पन्न नहीं हुआ ।' भगवान् ने कहा- 'निष्पन्न हुआ है । यह वनस्पति काय का परावृत्यपरिहार (च्युत होकर उसी शरीर में पुन: उत्पन्न होना) है।' गोशालक को विश्वास नहीं हुआ। वहां जाकर उसने तिल की फली को स्वयं फोड़ा। उसमें सात तिल निकले। उस दिन से गोशालक 'पट्टपरिहार' के आधार पर नियतिवाद का पूर्ण समर्थक बन गया। वहां से वह श्रावस्ती नगरी में जाकर एक कुंभकारशाला में ठहरा। छह महीने तक उसने भगवद्- प्ररूपित तेजोलेश्या की साधना की। उसकी परीक्षा करने के लिए उसने कूपतट पर स्थित दासी को जला डाला। फिर वहां छह दिशाचरों ने उसे निमित्त-ज्ञान का बोध कराया। अब वह अजिन होकर भी स्वयं को जिन कहने लगा। उसको इस विभूति की प्राप्ति हो गई। ७६. भगवान् की नौका - यात्रा भगवान् वैशाली में जाकर प्रतिमा में स्थित हो गए। वहां बच्चों ने पिशाच समझकर उनको स्खलित किया। वहां गणराज्य था। वहां का राजा शंख भगवान् के पिता सिद्धार्थ का मित्र था । उसने भगवान् की पूजा-अर्चना की। वहां से भगवान् वाणिज्यग्राम की ओर चले। बीच में गंडकी नदी आई। नौका से उसे पार कर भगवान् दूसरे तट पर आए । नाविक ने नौका में चढ़ने का मूल्य मांगा। मूल्य न देने पर वह उनको व्यथित करने लगा। उसी समय शंख राजा का भानजा चित्र, जो दूतकार्य के लिए अन्यत्र गया हुआ था, नौका-सेना से वहां आ पहुंचा। उसने भगवान् को पहचान लिया और उन्हें मुक्त कर उनकी पूजा की। ७७. आनन्दश्रावक को अवधिज्ञान वहां से भगवान् वाणिज्यग्राम के बाह्य उद्यान में प्रतिमा में स्थित हो गए। वहां आनन्द नामक १. आवनि. ३०८, आवचू. १ पृ. २९८, २९९, हाटी. १ पृ. १४२, १४३, मटी. प. २८६, २८७ । २. आवनि. ३०७, आवचू. १ पृ. २९९, हाटी. १ पृ. १४३, मटी. प. २८७, देखें कथा सं. ७२ का अंतिम पैराग्राफ । ३. आवनि. ३०९, आवचू. १ पृ. २९९, हाटी. १ पृ. १४३, मटी. प. २८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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