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________________ आवश्यक नियुक्ति ३७७ खाद्य और स्वाद्य को उपहत किया, फिर ऊर्ध्वमुख होकर बोले- 'आपकी ही शरण है, आपके प्रति हमने यदि असम्यक् व्यवहार किया हो तो आप हमें क्षमा करें।' तब आकाश में स्थित उस देव ने कहा- 'तुम सब दुरात्मा हो, दयाहीन हो। जिस मार्ग से तुम आते-जाते थे, वहां एक मृतप्राय: बैल को तुमने कभी तृण-पानी भी नहीं दिया इसलिए मैं तुमको नहीं छोड़ सकता। तब लोगों ने स्नान कर, फूल आदि को हाथ में लेकर गिड़गिड़ाते हुए कहा-'आपका कोप हमने देख लिया, अब आप अनुग्रह दिखाएं।' तब देव बोला'मनुष्यों की इन अस्थियों का ढेर बनाकर उस पर देवकुल बनाओ उसमें शूलपाणि यक्ष तथा एक ओर बलिवर्द की स्थापना करो। उन्होंने वैसा ही किया।' उस यक्षमंदिर की व्यवस्था का भार इन्द्रशर्मा को सौंपा गया। जब पथिक पांडुर अस्थियों का ढेर और देवकुल को देखकर आगे जाते तब दूसरे लोग उन्हें पूछते- 'कौन से गांव से आ रहे हो अथवा जा रहे हो?' तब वे कहते- 'जहां अस्थियों का ढेर है, उस गांव से आ रहे हैं अथवा जा रहे हैं।' तब से उस वर्द्धमानक गांव का नाम अस्थिकग्राम हो गया। ६०. शूलपाणि यक्ष का उपद्रव जो कोई व्यक्ति रात में उस व्यन्तरगृह में रहता, वह शूलपाणि यक्ष के द्वारा मार दिया जाता। इसलिए उस यक्षायतन में लोग दिन-दिन में ठहरते, रात में अन्यत्र चले जाते । इन्द्रशर्मा भी धूप-दीप कर दिन रहते-रहते वहां से घर चला जाता। एक बार भगवान् द्वितीयान्तक ग्राम के पार्श्व से होते हुए अस्थिकग्राम आ पहुंचे। गांव के सभी लोग वहां एकत्रित थे। स्वामी ने इन्द्रशर्मा से देवकुल में रहने की आज्ञा मांगी। उसने कहा- 'मैं नहीं जानता, आप गांव वालों से पूछे।' ग्रामवासी वहां एकत्रित थे। स्वामी ने उनसे आज्ञा मांगी। ग्रामवासियों ने कहा-'यहां नहीं रहा जा सकता।' भगवान् बोले- 'तुम केवल आज्ञा दे दो।' तब उन्होंने कहा- 'ठहरो!' ग्राम के प्रत्येक व्यक्ति ने पुनः प्रार्थना की- 'तुम हमारे गांव में चलो। वहां जहां चाहे ठहर जाना लेकिन यहां रहना उचित नहीं है।' प्रत्येक व्यक्ति ने अपने घर में रहने के लिए कहा परन्तु स्वामी नहीं चाहते थे। वे जानते थे कि शूलपाणि यक्ष प्रतिबुद्ध होगा। वे उस यक्षमंदिर के एक कोने में प्रतिमा में स्थित हो गए। इन्द्रशर्मा सूर्य के रहते-रहते धूप-दीप कर घर जाने के लिए प्रस्थित हुआ। वहां ठहरे हुए कार्पटिक-करोटिकों को देखकर उसने कहा- 'अब आप यहां से चले जाएं। रातभर यहां रहने से मृत्यु का वरण करना होगा। उसने प्रतिमा में स्थित देवार्य से भी कहा–'आप भी यहां से चले जाएं, अन्यथा मारे जायेंगे।' भगवान् ने सुना पर मौन रहे। उस व्यन्तरदेव ने सोचा- 'यह मुनि देवकुलिक तथा ग्रामवासियों के कहने पर भी नहीं गया। देखना, अब मैं क्या करता हूं।' तब व्यन्तरदेव संध्या के समय ही भीषण अट्टहास कर देवार्य को डराने लगा। इस भीषण अट्टहास की ध्वनि को सुनकर ग्रामवासी लोग भयभीत हो गए। उन्होंने सोचा, 'आज देवार्य मारे जाएंगे।' वहां उत्पल' नामक परिव्राजक रहता था। वह अष्टांगनिमित्त का ज्ञाता था। उसने जनता से सारा १. आवनि. २७८, आवचू.१ पृ. २७२, २७३, हाटी.१ पृ. १२६, १२७, मटी. प. २६८, २६९ । २. पाश्र्वापत्यीय मुनिवेष को छोड़कर परिव्राजक बना हुआ व्यक्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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