________________
३७६
परि. ३ : कथाएं
तब भगवान् ने पूर्व प्रयोग के आधार पर स्वागत में अपने बाहू प्रसारित किए। कुलपति बोला- 'कुमार ! यह उपयुक्त स्थान है। आप यहां ठहरें ।' स्वामी वहां एक रात रुककर विहार कर गए। उस समय कुलपति ने निवेदन किया- 'यहां एकान्त स्थान है, यदि आप वर्षावास बिताना चाहें तो यहां अवश्य आएं। हम कृतार्थ होंगे।' तब स्वामी आठ ऋतुबद्ध मास का अन्यत्र विहार कर वर्षाऋतु के प्रारंभ में द्वितीयान्तक ग्राम में आए और एक कुटीर में वर्षावास के लिए स्थित हो गए। वर्षाऋतु के प्रारंभ में गायों को चरने के लिए घास नहीं मिलता था अतः वे जीर्ण तृण खाती थीं । वे घास की कुटीरों पर जाकर जीर्ण तृण को खाने लगीं । तत्रस्थ लोग उसको हटाते परन्तु भगवान् अपने कुटीर के तृण खाने वाली गायों को निवारित नहीं करते। आश्रमवासियों ने कुलपति से यह बात कही कि यह भिक्षुक गायों को निवारित नहीं करता । तब कुलपति ने अनुशासित करते हुए भगवान् से कहा - 'कुमारवर ! पक्षी भी अपने नीड़ की रक्षा करते हैं। तुम भी अपने कुटीर की रक्षा करो। कुलपति ने पूर्ण प्रेमभाव से यह बात कही ।
इस बात को सुनकर भगवान् ने सोचा, यह अप्रीतिकर स्थान है। वे वहां से अन्यत्र विहार कर गए। वहां उन्होंने पांच अभिग्रह धारण किए - १. अप्रीतिकर स्थान में नहीं रहूंगा । २. नित्य व्युत्सृष्टकाय रहूंगा । ३. प्रायः मौन रहूंगा। ४. पाणिपात्र रहूंगा । ५. गृहस्थों की वंदना - अभ्युत्थान आदि से सत्कार - क्रिया नहीं करूंगा। वहां उस आश्रम में अर्धमास रहकर भगवान् अस्थिकग्राम में आए। उस अस्थिकग्राम का पूर्व नाम वर्द्धमानक था ।
५९. शूलपाणि यक्ष का पूर्वभव
एक बार धनदेव नामक वणिक् पांच सौ शकटों में गणिम-धरिम-मेय आदि पदार्थों को भरकर उस मार्ग से निकला। वहां वेगवती नाम की नदी बह रही थी। उसने अपने शकटों को नदी में उतारा। एक शक्तिशाली बैल सबसे आगे के शकट में जुता हुआ था । उसके पराक्रम से सभी शकट उस नदी को पार कर गए। वह धुरी बैल श्रान्त होकर भूमि पर गिर पड़ा। धनदेव ने उसके लिए तृण - पानी की व्यवस्था कर, उसे वहीं छोड़ आगे प्रस्थान कर दिया। वह बैल उस ज्येष्ठमास की तपती बालु में पड़ा हुआ गर्मी, भूख और प्यास से अत्यन्त व्याकुल हो रहा था । उस मार्ग से वर्द्धमानक गांव के अनेक लोग आते-जाते थे। परन्तु किसी ने भी उस बैल के तृण-पानी की व्यवस्था नहीं की। बैल के मन में सबके प्रति प्रद्वेष भाव जागा और वह अकाममरण से मर कर उसी गांव के अग्रोद्यान में शूलपाणि यक्ष के रूप में उत्पन्न हुआ । यक्षरूप में उत्पन्न होकर उसने ज्ञान के उपयोग से अपने मृत बैल के शरीर को देखा। उसने रुष्ट होकर गांव में मारी का प्रकोप किया। मारी के प्रभाव से लोग मरने लगे। सारे लोग क्षुब्ध हो गये। उन्होंने मारी के प्रकोप को नष्ट करने के लिए सैकड़ों कौतुक - मंत्र-तंत्र आदि किए, फिर भी प्रकोप उपशान्त नहीं हुआ। ग्रामवासी वहां से अन्यत्र जाने लगे। गांव उजड़ने लगा फिर भी यक्ष उपशान्त नहीं हुआ । तब ग्रामवासियों को चिन्ता हुई । उन्होंने सोचा, हमें ज्ञात नहीं है कि हमने किसी देव अथवा दानव की विराधना की हो इसलिए हम नगरदेवता के द्वार पर ही चलें। ग्रामवासी उस यक्षमंदिर में आए। नगरदेवता के समक्ष विपुल अशन-पान,
१. आवनि. २७७, २७८, आवचू. १ पृ. २७१, २७२, हाटी. १ पृ. १२६, मटी. प. २६८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org