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परि. ३ : कथाएं चिन्तन उभरा-'क्या किसी ने मेरे गर्भ का अपहरण कर लिया? क्या मेरा गर्भ मर गया? यह गर्भ पहले प्रकंपित होता था अब कंपित क्यों नहीं होता?' इस प्रकार उसके मन में विविध अनिष्ट संकल्प आने लगे। वह चिंता के सागर में डूब गई और दोनों हथेलियों से मुंह को छुपाती हुई भूमि पर दृष्टि टिकाए आर्त्त-रौद्र ध्यान करने लगी। तब सिद्धार्थ महाराज के पूरे भवन में बजने वाले मृदंग, तंत्री, ताल आदि वाद्य तथा नृत्यगीत सभी बंद हो गए। भगवान् ने सोचा- 'मृदंग आदि के शब्द क्यों नहीं सुनाई देते ?' भगवान् ने अवधिज्ञान से कारण जान लिया तब उन्होंने अपना अगुष्ठ हिलाया। गर्भ को प्रकंपित जान त्रिशला अत्यन्त प्रसन्न हुई। सिद्धार्थ के राजभवन में पूर्ववत् गाजे-बाजे बजने लगे। सारा वातावरण आनन्दित हो उठा। एक दिन भगवान् ने सोचा- 'मैं गर्भस्थ हूं फिर भी माता-पिता का मेरे साथ इतना प्रतिबंध है। यदि मैं बाल्य अवस्था को पार कर देव-दानव तथा परिजनों से परिवृत होकर प्रव्रज्या ग्रहण करूंगा तो माता-पिता को अत्यन्त खेद और दुःख होगा।' यह सोचकर माता-पिता पर अनुकंपा कर गर्भ के सातवें महीने में ही भगवान् ने यह अभिग्रह कर लिया- 'माता-पिता के जीवित रहते मैं श्रमण नहीं बनूंगा।'
त्रिभुवननाथ महावीर के उत्पन्न होने पर महाराज सिद्धार्थ ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'नगर में दस दिनों तक महान् उत्सव का आयोजन करो। सभी शुल्क और करों को माफ करो। भवनों को शुक्ल पताकाओं से सजाओ और चारों ओर नाटक आदि की व्यवस्था करो। जब बालक तीन दिन का हुआ तब माता-पिता ने चांद-सूर्य के दर्शन किए। छठे दिन जागरण किया। ग्यारह दिन बीतने पर, अशुचिजातकर्म संपन्न होने पर, बारहवें दिन विपुल अन्न-पान, खादिम-स्वादिम आदि उपस्कृत कराकर भोजनवेला में अपने मित्र, ज्ञातिजन तथा स्वजन-परिजनों को आमंत्रित कर भोजनमंडप में उन सबके साथ सुखासन में बैठकर विपुल भोज्य पदार्थों का उपभोग किया। भोजन कर चुकने पर उन सबका विपुल वस्त्रगंध, माल्य, अलंकारों से सत्कार-सम्मान किया। फिर सिद्धार्थ ने उन सबसे कहा-'देवानुप्रियो !' पहले भी हमारे मन में विचार आया था कि जब से यह बालक गर्भ में आया है, तब से हम हिरण्य आदि से वृद्धिंगत होते रहे हैं अतः इस शिशु का तथारूप नाम 'वर्द्धमान' रखेंगे।' यह सुनकर सभी ने कहा- 'आर्य! मनोरथ के आधार पर कुमार का नाम वर्द्धमान रखा जाए।
भगवान् के पारिवारिक लोगों के नाम इस प्रकार थे-चाचा का नाम सुपार्श्व, ज्येष्ठ भ्राता का नाम नंदिवर्धन, बहिन का नाम सुदर्शना, भार्या का नाम यशोदा, पुत्री के दो नाम-अनवद्या और प्रियदर्शना, दौहित्री के भी दो नाम-यशोमती और शेषमती। ५१. बालक महावीर की देव द्वारा परीक्षा
__एक बार इन्द्र ने देवसभा में महावीर के गुणकीर्तन करते हुए कहा-'भगवान् बालक होते हुए भी परम पराक्रमी हैं।' उनको देव और दानव भी नहीं डरा सकते। एक देव को इन्द्र के वचनों पर श्रद्धा नहीं हुई। वह परीक्षा के लिए भगवान् के पास आया। भगवान् उस समय बालकों के साथ वृक्षक्रीड़ा कर रहे थे। उन वृक्षों पर जो प्रथम चढ़ता और नीचे उतरता वह बालकों द्वारा वहन किया जाता। देव वहां आकर वृक्ष
१. आवनि. २७२-२७४, आवचू. १ पृ. २३६-४५, हाटी. १ पृ. ११९, १२०, मटी. प. २५३-२५७ ।
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