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________________ आवश्यक नियुक्ति ३७३ के नीचे महावीर को डराने के लिए विकराल सर्प का रूप बना, ऊंचा फन किए बैठ गया। बालक महावीर ने उसे देखा और सहजभाव से बाएं हाथ से पकड़कर फेंक डाला। देव ने सोचा-'भगवान् नहीं ठगे गए।' कुछ समय पश्चात् स्वामी तिन्दुक क्रीड़ा करने लगे। वह देवता बालक का रूप बनाकर उनके साथ खेलने लगा। बालक महावीर जीत गए। तब वे बालक बने देव की पीठ पर बैठे। वह ताल पिशाच का रूप बनाकर बढ़ने लगा। भगवान् तनिक भी नहीं डरे। उन्होंने उस पर मुक्के से प्रहार किया। वह वहीं शांत बैठ गया। यहां भी वह सफल नहीं हुआ। फिर वह देवरूप में प्रगट होकर भगवान् को वंदना करके चला गया। ५२. ऐन्द्र व्याकरण का प्रारम्भ जब महावीर आठ वर्ष के हुए तब उन्हें लेखाचार्य के पास अध्ययन हेतु भेजा। उसी समय देवराज इंद्र का आसन चलित हुआ। अवधिज्ञान से उसने जाना कि जगद्गुरु भगवान् को माता-पिता स्नेह के वशीभूत होकर उपाध्याय के पास भेज रहे हैं। तब इंद्र ने भगवान् को उपाध्याय के लिए परिकल्पित बृहद् आसन पर बिठाकर शब्द का लक्षण एवं अकार आदि के भंग और पर्याय पूछे। भगवान् ने उसका पूरा व्याकरण (शब्दशास्त्र) बता दिया। उपाध्याय आश्चर्यचकित रह गया। उसे व्याकरण के नये अवयव ज्ञात हुए। तब से ऐन्द्र व्याकरण का प्रारम्भ हुआ। इन्द्र ने कहा- 'भगवान् जातिस्मृति एवं तीन ज्ञान से युक्त हैं अतः इन्हें पढ़ाने की आवश्यकता नहीं है।'२ ५३. महावीर का अभिनिष्क्रमण भगवान् जब अट्ठाइस वर्ष के हुए तब उनके माता-पिता दिवंगत हो गए। गर्भकाल में की गई प्रतिज्ञा पूरी होने पर भगवान् अपने बड़े भाई नंदिवर्धन के पास पहुंचे और दीक्षा की बात कही। नंदिवर्धन बोले- 'माता-पिता के दिवंगत होने पर तुम दीक्षा की बात करते हो, यह घाव पर नमक छिड़कने जैसी बात है। अभी कुछ समय ठहरो, जिससे हम शोकमुक्त हो सकें।' भगवान् ने पूछा- 'कितने दिन और रुकना पड़ेगा?' नंदीवर्धन बोला- 'दो वर्ष में शोक सम्पन्न होगा।' महावीर ने कहा- 'मैं इतने दिन घर में रहने को तैयार हूं लेकिन भोजन आदि क्रिया मैं अपनी इच्छा से करूंगा।' स्वजनों ने इसे स्वीकार कर लिया। दो वर्ष तक भगवान् ने प्रासुक आहार किया एवं रात्रिभोजन का परिहार किया। इस अवधि में भगवान् ने सचित्त जल से स्नान भी नहीं किया। महावीर हाथ-पैर आदि भी प्रासुक जल से धोते थे। निष्क्रमणरे--महोत्सव के अवसर पर भगवान् ने अप्रासुक जल से स्नान किया। इंद्र का आसन विचलित हुआ उसने अवधिज्ञान से जाना कि अर्हत् महावीर अभिनिष्क्रमण करना चाहते हैं। उसने वैश्रमण देव को ३८८ करोड़ और ८० हजार सौनैया खजाने में रखने का आदेश दिया। भगवान् ने वर्षीदान दिया। लोकान्तिक देवों ने भगवान् को संबोध दिया। जल, स्थल एवं दिव्य फूलों से १. आवनि. २७३, आवचू. १ पृ. २४६-२४८, हाटी. १ पृ. १२१, मटी. प. २५८, २५९ । २. आवचू. १ पृ. २४८, २४९, हाटी. १ पृ. १२१, १२२, मटी. प. २५९ । ३. अभिनिष्क्रमण के विस्तृत वर्णन हेतु देखें आवचू. १ पृ. २५१-२६७, मटी. प. २६०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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