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________________ आवश्यक नियुक्ति ३७१ साहरण करना श्रेय है और जो त्रिशला का गर्भ है, वह देवानंदा की कुक्षि में साहरण करना उचित है। इन्द्र ने ऐसा सोचकर, पैदल सेना के अधिपति हरिणेगमेषी देव को बुलाकर कहा - 'जाओ, देवानन्दा की कुक्षि से श्रमण भगवान् महावीर का साहरण कर त्रिशला की कुक्षि में स्थापित करो।' यह सुनकर हरिणेगमेषी देव बहुत प्रसन्न हुआ और इन्द्र की आज्ञा को विनयपूर्वक शिरोधार्य किया। उसने उत्तर-पूर्व दिशा में अवक्रम कर वैक्रिय समुद्घात से उत्तरवैक्रिय रूप की विकुर्वणा की । वह तीव्र गति से देवानन्दा के स्थान पर आया और झरोखे से भगवान् महावीर को प्रणाम कर 'भगवन् ! मुझे कार्य की अनुमति दें' - यह कहकर देवानन्दा सहित समूचे परिवार को अवस्वापिनी विद्या से निद्रित कर दिया। उसने दिव्य प्रभाव से अपने करतलपुट में सहजरूप से भगवान् के गर्भ को ग्रहण कर लिया। उस समय गर्भ के ८२ दिन-रात व्यतिक्रान्त हो गए थे, ८३ वें दिन अर्थात् वर्षा के तीसरे मास, पांचवें पक्ष, आसोजकृष्णा तेरस के दिन देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि से उस गर्भ का क्षत्रियाणी त्रिशला की कुक्षि में संहरण किया गया और त्रिशला के गर्भ को देवानन्दा की कुक्षि में स्थापित किया गया। वह देव अपना कार्य संपन्न कर शक्र के पास गया और उसे सारी बात कही। गर्भस्थ भगवान् तीन ज्ञान के धनी थे। जिस रात्रि में गर्भ का संहरण हुआ तब देवानन्दा अपने स्वप्नों को हृत होते देखकर जागृत हो गई। त्रिशला भी अपने मनोरम शयनीय पर सुप्त- जागृत अवस्था चौदह महास्वप्न देखकर जागृत हो गई। उसने सिद्धार्थ से स्वप्नों की बात कही। वह भी स्वाभाविक बुद्धिप्रकर्ष से उन स्वप्नों का अर्थ बताते हुए बोला- 'देवानुप्रिय ! तुमने उत्तम स्वप्न देखे हैं।' तुम कुलकर, कीर्तिकारक तथा इन्द्रियों से परिपूर्ण एक बालक का प्रसव करोगी। यह सुनकर त्रिशला अत्यन्त प्रसन्न हुई । उसने उन वचनों को सम्यग्रूप से स्वीकार किया। प्रातःकाल होते ही सिद्धार्थ ने स्वप्नपाठकों बुलाकर स्वप्नों का फल पूछा। स्वप्नपाठकों ने स्वप्नशास्त्र के अनुसार स्वप्नों का अर्थ बताते हुए कहा- 'बालक चातुरंत चक्रवर्ती राजा होगा, जिन अथवा त्रिलोकनायक धर्मवरचक्रवर्ती होगा।' त्रिशला महारानी स्नान तथा कौतुकमंगलोपचार करती हुई गर्भ का संरक्षण करने लगी। अब वह न अति उष्ण, न अति शीत, न अति तिक्त, न अति कटुक, न अति काषायित, न अति अम्ल और न अति मधुर आहार करती। वह गर्भ के लिए देश और काल के अनुसार हितकर तथा पथ्य आहार करती । एकान्त में मृदु शयन-आसन पर सुखपूर्वक बैठी रहती। जिस रात्रि में त्रिशला के गर्भ का संहरण हुआ, उसी रात्रि में शक्र के वचनों के आधार पर तिर्यग् जृंभक देवों ने विविध मणि-निधान सिद्धार्थ राजा के भवन में पहुंचा दिए। ज्ञातकुल हिरण्य, सुवर्ण, राज्य, बल, वाहन, कोष्ठागार सभी प्रकार के धन-धान्य से अत्यन्त वृद्धिंगत हुआ । सिद्धार्थ महाराज के प्रति सभी सामन्त राजे प्रणत हो गए। तब भगवान् के माता-पिता के मन में यह संकल्प उपजा - 'जब से यह बालक गर्भ में आया तब से ही हम हिरण्य, सुवर्ण आदि से बढ़े हैं इसलिए जब हमारा पुत्र उत्पन्न होगा तब हम उसका तथारूप नाम वर्द्धमान रखेंगे।' इस प्रकार वे मन ही मन हजारों मनोरथ संजोने लगे । गर्भस्थ भगवान् माता की अनुकंपा से प्रेरित होकर निश्चल हो गए। तब त्रिशला के मन में यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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