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परि. ३ : कथाएं
चला। वहां के राजा की अग्रमहिषी उनकी भुआ थी । उसकी लड़की के साथ उसका वाग्दान हो गया। उसे राजमार्ग पर आवास दिया गया । अनगार विश्वभूति मासक्षपण के पारणे के लिए घूमता हुआ उसी स्थान पर आया, जहां विशाखनंदी ठहरा हुआ था। उसके अनुचरों ने कहा - 'स्वामिन्! आप इसे नहीं जानते। यह कुमार विश्वभूति है।' यह सुनकर अनगार विश्वभूति को देखकर उसके मन में रोष उत्पन्न हुआ। इतने में ही एक तत्काल ब्याई हुई गाय ने मुनि को नीचे गिरा दिया। तब वहां उपस्थित सभी लोगों ने जोर से अट्टहास किया और कहा - 'कपित्थ को गिरा देने का तुम्हारा बल आज कहां चला गया ? तब अनगार ने उस ओर देखा तो विशाखनंदी कुमार दृग्गोचर हुआ । उसने आवेश में उस गाय को अग्रसींगों से उठाकर ऊपर उछाला। क्या श्रृगाल दुर्बल सिंह के बल का अतिक्रमण कर सकते हैं? मुनि वहां से चला गया। उसने सोचा, इस युवराज का आज भी मेरे प्रति रोष है। तब उसने निदान किया- 'यदि मेरे इस तपनियम तथा ब्रह्मचर्य का फल हो तो मैं आगे अपरिमित बल वाला बनूं। उसने निदान की आलोचना-प्रतिक्रमण नहीं किया। वह महाशुक्र देवलोक में उत्कृष्ट स्थिति वाला देव बना । महाशुक्र से च्युत होकर वह पोतनपुर नगर में राजा प्रजापति' की मृगावती रानी के गर्भ से पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। मां ने सात स्वप्न देखे। स्वप्नपाठकों ने बताया कि यह पहला वासुदेव होगा। गर्भ की अवधि पूरी होने पर मृगावती ने पुत्र का प्रसव किया। उसके तीन पृष्ठकरण्डक थे इसलिए पुत्र का नाम त्रिपृष्ठ रखा। माता ने उष्णतैल से उसकी मालिश की। क्रमशः वह यौवन को प्राप्त हुआ ।'
अश्वग्रीव महामांडलिक राजा था। उसने नैमित्तिक से पूछा - 'मुझे किससे भय है ?' नैमित्तिक बोला- 'जो चंडमेघ नामक दूत तथा तेरे महाबलशाली सिंह को मारेगा, उससे तुझे भय है।' अश्वग्रीव ने सुना कि प्रजापति के दोनों पुत्र महाबलशाली हैं तो उसने वहां एक दूत को भेजा। उस समय अन्तःपुर में नाट्य-संगीत चल रहा था । दूत भीतर गया। नाट्य-संगीत का क्रम टूट गया। दोनों कुमारों ने रुष्ट होकर कहा - 'कौन है वह ?' अनुचरों ने कहा- 'महाराज अश्वग्रीव का दूत है।' कुमार बोले- 'जब यह यहां से जाए तब हमें बताना ।' राजा ने दूत का सम्मान कर उसे विसर्जित कर दिया। वह अपने देश की ओर चल पड़ा। अनुचरों ने दूत के जाने की बात कही। कुमार उसके पीछे गए और मार्ग में ही उसको मार डाला। दूत के जो सहायक पुरुष थे, वे चारों ओर भाग गए। महाराज प्रजापति ने सुना कि दूत मारा गया है तो वे संभ्रान्त
१. प्रजापति का पूर्व नाम रिपुप्रतिशत्रु था । भद्रा रानी से उसके अचल नाम का पुत्र हुआ । अचल की भगिनी मृगावती अतीव रूपवती थी। वह यौवन अवस्था में पहुंची। एक दिन वह सर्व अलंकारों से विभूषित होकर पिता के चरण-वंदन के लिए गई। पिता ने उसे गोद में बिठा लिया। पिता उसके रूप, यौवन और अंगस्पर्श से मूर्च्छित हो गया। उसने अपनी पुत्री को विसर्जित कर पुरवासियों से पूछा - 'यहां जो रत्न उत्पन्न होता है, वह किसका होता है ?' पुरवासियों ने कहा- 'आपका।' इस प्रकार तीन बार पूछा और फिर अपनी पुत्री को वहां उपस्थित किया । वह लज्जित होकर चली गई । पुरवासियों के कहने पर गन्धर्व विवाह के द्वारा पिता के साथ उसका विवाह हो गया। वह भार्या बन गई। रानी भद्रा अपने पुत्र अचल के साथ दक्षिणापथ में माहेश्वरी नगरी में रहने चली गई। अचल माता को वहां स्थापित कर पुनः पिता के पास आ गया। तब लोगों ने राजा का नाम प्रजापति रखा क्योंकि उसने अपनी प्रजा - पुत्री को ही स्वीकार कर लिया था । वेद में भी कहा है- 'प्रजापतिः स्वां दुहितरमकामयत्' (आवचू. १ पृ. २३२, हाटी. १ पृ. ११६, मटी. प. २४९, २५० ) ।
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