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________________ आवश्यक नियुक्ति ३६९ होकर वहां आए। उन्होंने दुगुना, तिगुना धन देकर कहा कि महाराजा अश्वग्रीव को यह ज्ञात न होने पाए कि कुमारों ने दूत को मारा है। उसने कहा- 'मैं नहीं कहूंगा।' परन्तु जो पहले पहुंच गए थे उन्होंने दूत के मारे जाने की बात अश्वग्रीव को बताई। वह अत्यंत कुपित हो गया। अश्वग्रीव ने दूसरे दूत को बुलाकर कहा- 'तुम जाओ और महाराज प्रजापति को कहो कि मेरे शालिवन की रक्षा करे।' दूत ने जाकर सारी बात बताई। राजा ने कुमारों को उपालंभ देते हुए कहा- 'तुमने अकाल में ही मृत्यु को क्यों आमंत्रित किया है ?' उसने बिना क्रम के ही हमें यात्रा की आज्ञा दी है। आज्ञा के अनुसार राजा जाने लगा तो कुमार बोले- 'हम जाएंगे।' रोकने पर भी वे नहीं रुके। उन्होंने क्षेत्रिकों से पूछा- ‘क्या अन्य राजाओं ने भी खेतों की रक्षा की है?' वे बोले- 'अश्व, हाथी, रथ और पुरुषों का प्राकार बनाकर जब तक कर्षण होता है, तब तक वे रक्षा करते हैं।' त्रिपृष्ठ ने पूछा- वे इतने समय तक कहां रहते हैं, मुझे वह स्थान दिखाओ।' छद्मवश आरक्षक बोले- 'वे इस गुफा में रहते हैं।' त्रिपृष्ठकुमार रथ पर बैठ कर गफा में प्रविष्ट हआ। लोगों ने दोनों ओर से हर्षध्वनि की। गफावासी सिंह अंग मरोडता हुआ बाहर निकला। कुमार ने सोचा-यह पैदल है, मैं रथ पर आरूढ हूं। यह असदृश युद्ध होगा। हाथ में तलवार लेकर वह रथ से नीचे उतर गया। फिर उसने सोचा-'इस सिंह के पास दाढा और नख ही आयुध हैं, मेरे हाथ में तलवार है। यह भी असमानता है।' उसने हाथ से तलवार दूर फेंक दी। सिंह क्रोधित हो गया। उसने सोचा-पहली बात है-यह रथ पर आरूढ होकर अकेला गुफा में आया है। दूसरी बात वर्तमान में यह भूमि पर खड़ा है। तीसरी बात इसने शस्त्रास्त्र भी छोड़ दिए हैं। आज इसको मार डालूंगा, यह सोचकर सिंह दहाड़ा और मुंह को फाड़कर कुमार के पास आया। कुमार ने तत्काल एक हाथ से उपरितन ओष्ठ और दूसरे से नीचे का ओष्ठ पकड़कर एक जीर्ण-शीर्ण वस्त्र की भांति उसको फाड़ डाला। उसको दो भागों में फाड़कर दूर फेंक दिया। लोगों ने जय-जयकार की हर्षध्वनि की। आसन्न देवता ने आभरण, वस्त्र और कुसुम बरसाए। सिंह क्रोध से कंपित हो रहा था। ओह! मैं इस कुमार से युद्ध में मारा गया। उस समय गौतमस्वामी रथसारथि थे। उन्होंने सिंह से कहा- 'रोष मत करो। यह नरसिंह है। तुम मुगाधिप हो। यदि सिंह सिंह को मारता है तो इसमें अपमान की बात ही क्या है?' उन वचनों का सिंह ने मधु की भांति पान किया। वह मरकर नरक में उत्पन्न हुआ। कुमार त्रिपृष्ठ सिंह के चर्म को लेकर अपने नगर की ओर चला। उसने उन ग्रामवासियों को कहा- 'जाओ, अश्वग्रीव को कहो कि अब वह आश्वस्त होकर रहे।' वे ग्रामीण अश्वग्रीव के पास गए और सारी बात बताई। अश्वग्रीव ने रुष्ट होकर दूत को भेजकर प्रजापति से कहा कि तुम दोनों पुत्रों को मेरी सेवा में भेज दो। तुम बूढ़े हो गए हो। मैं उनका सत्कार करूंगा, राज्य दूंगा। प्रजापति बोला- 'कुमारों को रहने दो। मैं स्वयं सेवा में उपस्थित होता हूं।' दूत बोला--- 'यदि कुमारों को नहीं भेजते हो तो युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।' तब कुमारों ने दूत को तिरस्कृत कर निकाल दिया। अश्वग्रीव इस व्यवहार पर कुपित हो गया और अपनी सेना के साथ सीमा पर आ डटा। प्रजापति भी सेना के साथ सीमा पर आ गया। लंबे समय तक युद्ध चला। अश्व, हाथी, रथ और पैदल सैनिकों की भारी क्षति हुई। कुमार ने तब कहलाया-व्यर्थ की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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