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आवश्यक निर्युक्ति
४९. त्रिपृष्ठ वासुदेव
पुष्प-पत्र
राजगृह नगर में विश्वनंदी राजा राज्य करता था । उसके भाई का नाम विशाखभूति था । वह युवराज था। उसकी पत्नी धारिणी देवी थी। उसके विश्वभूति नामक पुत्र था। राजा के पुत्र का नाम था विशाखनंदी । विश्वभूति की आयु कोटि वर्ष की थी। राजगृही में पुष्पकरंडक नाम का उद्यान था । विश्वभूति वहां अंतः पुर के साथ सुखपूर्वक विचरण कर रहा था । विशाखनंदी की माता की दासियां पुष्पकरंडक उद्यान से लाती थीं। वे विश्वभूति को क्रीडा करती हुई देखती थीं। ईर्ष्यावश उन्होंने महारानी से कहा - 'कुमार विश्वभूति वहां इस प्रकार क्रीडा करता है फिर केवल राज्य और बल से हमारा क्या प्रयोजन ? यदि विशाखनंदी राजकुमार भी विश्वभूति जैसे भोग नहीं भोगता तो हमारा तो केवल नाम है। राज्य तो युवराज का है। महारानी दासी की यह बात सुनकर ईर्ष्यावश कोपगृह में प्रविष्ट हो गई । यदि राजा की जीवित अवस्था में ऐसी दशा है तो राजा के मर जाने पर हमारा क्या होगा ? हमें कौन गिनेगा ? राजा ने उसे बहुत समझाया पर वह प्रसन्न नहीं हुई। उसने कहा- ' -'मुझे राज्य से अथवा तुमसे क्या प्रयोजन ?' राजा ने अमात्य को समझाने के लिए कहा। अमात्य के समझाने पर भी वह नहीं मानी तब अमात्य बोला- 'राजन् ! देवी के वचनों का अतिक्रमण मत करो। वह कहीं आत्मघात न कर ले।' राजा ने पूछा - ' इसके लिए क्या उपाय किया जाए? हमारे वंश की यह परम्परा नहीं कि उद्यान में एक व्यक्ति के जाने पर दूसरा राजकुमार जाए।' बसन्त ऋतु आने तक विश्वभूति वहां रहा। आगे एक मास और रह गया । अमात्य ने राजा से कहा—‘अब उपाय करना चाहिए।' उसने सुझाव देते हुए राजा से कहा- 'अमुक प्रत्यन्त देश का राजा अत्यन्त उद्धत हो गया है। ऐसा कूटलेख आज्ञापित पुरुष यहां लाए। तब राजा यात्रा करने और युद्ध के लिए प्रस्थान करने का निश्चय करे ।' विश्वभूति ने जब यात्रा की बात सुनी तो उसने कहा- 'मेरे जीवित रहते आप युद्ध के लिए प्रस्थान क्यों करते हैं ? विश्वभूति प्रत्यन्त देश में गया। तब विशाखनंदी उद्यान में जाने लगा। वहां किसी उपद्रवकारी राजा या जनता को नहीं देखा तो वह घूम-फिर कर लौट आया। कोई भी राजाज्ञा का अतिक्रमण नहीं कर रहा है, यह सोचकर वह पुनः पुष्पकरंडक उद्यान में आ गया। द्वारपालों ने उसे रोकते हुए कहा—‘स्वामिन्! अन्दर न जाएं।' उसने पूछा- 'क्यों ?' द्वारपाल बोला- 'यहां विशाखनंदी क्रीडारत है।' यह सुनकर विश्वभूति कुपित हो गया। उसने जान लिया कि धोखे से मुझे यहां से निकाला गया है। वहां कपित्थ की अनेक लताएं थीं। वे फलों के भार से झुकी हुई थीं। एक मुष्टि के प्रहार से बहुत सारे कपित्थ भूमि पर आ गिरे। उसने रूपक की भाषा में उनको संबोधित कर कहा - 'जैसे मैंने तुमको नीचे गिराया है, वैसे ही चाचा के गौरव को भी नीचे न कर डाला तो मेरा नाम नहीं। मुझे छद्म से हटाया गया है। अब मुझे भोगों से क्या प्रयोजन ?' वह भोगों को अपमान का निमित्त मानकर, उनका परित्याग कर स्थविर आर्यसंभूत के पास दीक्षित हो गया। उसके प्रव्रजित होने की बात सुनकर राजा अपने अन्त: पुर के साथ ह गया। युवराज भी वहां पहुंचा। उन सबने मुनि से क्षमायाचना की। मुनि ने उनकी प्रार्थना पर ध्यान नहीं दिया। वह विविध बेले-तेले आदि तपस्या से अपने आपको भावित करता हुआ विहरण करने लगा । विहार करते हुए एक बार वे मथुरा नगरी में गए। इधर विशाखनंदी भी कार्यवश मथुरा की ओर
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