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________________ ३५२ परि. ३ : कथाएं भगवान् के जन्मभवन में स्थापित किए। तब शक्र ने आभियोगिक देवों के साथ उच्च स्वर में उद्घोषणा की कि सभी भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों और देवियों! सुनो, जो कोई भगवान् के प्रति अथवा उनकी जननी के प्रति मन में अशुभ भावना करेगा उसका सिर आर्यमंजरी की भांति सात टुकड़ों में विभक्त हो जाएगा। चारों प्रकार के देव भगवान् की जन्म-महिमा कर नंदीश्वरद्वीप में गए और वहां अष्टाह्निक उत्सव संपन्न कर अपने स्थान पर लौट गए। ३२. इक्ष्वाकु वंश की स्थापना यह जीत व्यवहार है कि अतीत, अनागत और वर्तमान के सभी प्रथम तीर्थंकर की वंशस्थापना इंद्र करते हैं। भगवान् के जन्म के बाद देवताओं का समूह एकत्रित होकर आया। इंद्र ने सोचा कि मैं खाली हाथ कैसे जाऊं इसलिए वह एक बड़ा इक्षुदण्ड हाथ में लेकर गया। नाभि कुलकर ऋषभ को अपनी गोद में लिए हुए बैठे थे। इंद्र के आगमन पर भगवान् की दृष्टि इक्षु-दण्ड पर पड़ी। इंद्र ने पूछा- 'भगवन् ! क्या आप इक्षु खाएंगे?' यह सुनकर ऋषभस्वामी ने अपना हाथ फैलाया और हंसकर प्रसन्नता व्यक्त की। इंद्र ने सोचा कि भगवान् को इक्षु खाने की अभिलाषा है, इसलिए इनका वंश इक्ष्वाकु हो। भगवान् के पूर्वजों ने इक्षुरस पीया था अत: उनके वंश का नाम इक्ष्वाकु पड़ा। इस प्रकार इंद्र भगवान् के वंश की स्थापना करके वापिस चला गया। ३३. ऋषभ का विवाह भगवान् ऋषभ सुमंगला के साथ सुखपूर्वक संवर्धित हो रहे थे। उस समय एक यौगलिक के एक युगल प्रसूत हुआ। उस युगल को ताड़ वृक्ष के नीचे रखकर वे स्वयं कदलीगृह में क्रीड़ारत हो गए। वायु के साथ एक पका हुआ ताड़ का फल नीचे सोए बालक के ऊपर गिरा। अकाल में ही बालक की मृत्यु हो गयी। कुछ समय तक बालिका का पालन-पोषण कर वह यौगलिक कालगत हो गया। बड़ी होने पर वह कन्या देवकन्या की भांति रूपवती और उत्कृष्ट शरीर वाली हो गयी। वह वनदेवता की भांति वन में विचरण करती थी। उसको एकाकी देखकर लोगों ने नाभि को निवेदन किया। नाभि ने कहा- 'यह ऋषभ की पत्नी होगी। इससे स्वतः इसकी सुरक्षा हो जाएगी।' ऋषभ दो दारिकाओं के साथ बढ़ने लगे। शक्र के मन में ऐसा चिंतन उत्पन्न हुआ कि अतीत, अनागत और वर्तमान के सभी प्रथम तीर्थंकरों का विवाह-उत्सव किया जाता है, यह हमारा जीत व्यवहार है। चिंतन के साथ वह शीघ्र ही समृद्धि के साथ वहां आया। शक्र ने स्वयं भगवान् ऋषभ का वरकर्म किया तथा दोनों दारिकाओं का इन्द्र की अग्रमहिषी ने वधूकर्म किया। विवाह करके इन्द्र जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापिस लौट गया।' ३४. ऋषभ का राज्याभिषेक यौगलिक हाकार, माकार आदि दंडनीतियों का अतिक्रमण करने लगे। भगवान् को जातिस्मृति १. आवनि. १३७/१, २, आवचू. १ पृ. १३५-१५१, हाटी. १ पृ.८०-८३, मटी. प. १६३-१९१ । २. हाटी. १ पृ. ८४, इक्खं अकु-भक्षयसि? अकुशब्दः भक्षणार्थे वर्तते। ३. आवनि. १३७/३, ४, आवचू. १ पृ. १५२, हाटी. १ पृ. ८४, मटी. प. १९२ । ४. आवनि. १३७/५, ९, आवचू. १ पृ. १५२, १५३, मटी. प. १९३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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