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________________ आवश्यक निर्युक्त ३५१ पूर्वदिशा वाले कदलीगृह के चतुःशाला में स्थित सिंहासन पर बिठाकर स्नान करवाया। गंध काषायिक वस्त्र से शरीर को पोंछकर गीले गोशीर्षचंदन का लेप कर उन्हें दिव्य देवदूष्य पहनाकर सर्व अलंकारों से अलंकृत किया। इसके पश्चात् उत्तरदिशा में स्थित कदलीगृह के चतुःशाला में स्थित सिंहासन पर उन दोनों को बिठाया। इसके बाद आभियोगिक देवों ने चुल्ल हिमवंत पर्वत से गीले गोशीर्षचंदन की लकड़ी लाकर अरणि से अग्नि उत्पन्न की। दिक्कुमारियों ने गोशीर्ष चंदन की लकड़ी से अग्नि को प्रज्वलित किया । तत्पश्चात् अग्निहोम, भूतिकर्म तथा रक्षापोट्टलिका (बच्चे को बुरी नजर से बचाने के लिए किया जाने वाला उपचार) आदि कर्म किए । फिर भगवान् के कर्णमूल में पत्थर के दो गोल टुकड़े बजाए। आपका आयु पर्वत जितना लम्बा हो- ऐसा कहकर तीर्थंकर भगवान् को हस्तपुटों में तथा उनकी माता को भुजाओं से पकड़कर जन्म-भवन की शय्या पर बिठाया और बालक को उनके पास रखकर गीत गाती हुई भगवान् पास बैठ गयीं। इसके पश्चात् नाना मणि की किरणों से सुशोभित इंद्र का सिंहासन चलित हुआ । उसने अपने अवधिज्ञान से तीर्थंकर भगवान् के जन्म को देखा और शीघ्र ही अपने पालक विमान से वहां आया। उसने भगवान् तथा उनकी माता को तीन बार दाएं से बाएं प्रदक्षिणा की। वंदन एवं नमस्कार करके वह इस प्रकार बोला- 'रत्न कुक्षिधारक मरुदेवा मां! तुमको नमस्कार ! मैं भगवान् का जन्म महोत्सव करना चाहता हूं ।' माता उत्सव में रुकावट न डाले इसलिए मरुदेवा को अवस्वापिनी नींद में सुला दिया। इंद्र ने तीर्थंकर के प्रतिरूप की विकुर्वणा कर उसको तीर्थंकर की माता के पास रख दिया और भगवान् के शरीर को हस्तपुट में लेकर अपने शरीर की पांच प्रकार से विकुर्वणा की। जिनेन्द्र को गृहीत एक शरीर, दोनों ओर दो इन्द्र हाथों में चमर धारण किए हुए, एक पवित्र आतपत्र लिए हुए और पांचवां हाथ में वज्र लिए हुए - इस प्रकार पांच शरीरों की विकुर्वणा की । तब इंद्र चार प्रकार के देव समूह के साथ भगवान् को लेकर शीघ्रता से मंदर पर्वत के पंडकवन की मंदरचूलिका की दक्षिण दिशा में स्थित अतिपांडुकंबलशिला पर अभिषेक सिंहासन के पास गया और पूर्व दिशा के अभिमुख होकर सिंहासन पर बैठ गया । बत्तीस प्रकार के इन्द्र भगवान् के चरण के निकट आए। सबसे पहले अच्युत देवलोक के इन्द्र ने अभिषेक' किया फिर क्रमशः चमर, चन्द्र, सूर्य पर्यन्त सभी इन्द्रों ने अभिषेक किया। भगवान् के जन्मअभिषेक के उत्सव से निवृत्त होकर इन्द्र सर्वऋद्धि से चार प्रकार के देवों के साथ तीर्थंकर को लेकर माता के पास लौट आया। तीर्थंकर की प्रतिकृति का संहरण कर मूल तीर्थंकर को माता के पास सुला दिया। अवस्वापिनी विद्या का संहरण कर माता को जागृत किया । इन्द्र ने दिव्य क्षौमयुगल तथा कुंडलयुगल को भगवान् के सिरहाने के पास रखा। एक श्रीदामगंड, स्वर्णोज्ज्वल लड़ियों का एक हार तथा नाना प्रकार के सुवर्णप्रतर मंडित नानामणिरत्नजटित हार-अर्द्धहार आदि आभूषण भगवान् के चंदेवे के ऊपर रखे । बालक तीर्थंकर अनिमेषदृष्टि से देखते हुए सुखपूर्वक क्रीडा करने लगे । इन्द्र के कहने पर वैश्रमण देव ने बत्तीस करोड़ हिरण्य, बत्तीस करोड़ सुवर्ण, बत्तीस नन्दासन, बत्तीस भद्रासन १. भगवान् के अभिषेक का विस्तृत वर्णन चूर्णि में मिलता है । देखें आवचू. १ पृ. १४३-१५१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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