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________________ ३५० परि. ३ : कथाएं अनिन्द्रिया। हम तीर्थंकर भगवान् का जन्म-महोत्सव मनाने आई हैं। आप भय न करें।' तब उन्होंने उस प्रदेश में सैकड़ों खंभेवाले जन्म-भवन की विकुर्वणा की और संवर्तक पवन की विकुर्वणा कर जन्म-भवन के चारों ओर एक-एक योजन तक तृण, काष्ठ, कंकर तथा बालूरेत को साफ कर दूर फेंक दिया। तत्पश्चात् उड़ी हुई रेत आदि को शीघ्र ही उपशान्त कर माता सहित तीर्थंकर को प्रणाम कर उनके उपपात में गाती हुई बैठ गईं। उसके पश्चात् ऊर्ध्वलोक वास्तव्य आठ दिक्कुमारियां-मेघकरी, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, तोयधारा, विचित्रा, वारिसेना और बलाहका-आदि आठ दिक्कुमारियों ने आकाश में बादलों की विकुर्वणा की। फिर भगवान् के जन्म-भवन के चारों ओर एक योजन तक वर्षा की। उस वर्षा से न अधिक जल इक्कट्ठा हुआ और न अधिक मिट्टी। हल्की-हल्की वर्षा से वातावरण में सूक्ष्म रजें भी नहीं रहीं। वर्षा का पानी गंधोदक से सुरभित था। उसके बाद दिक्कुमारियों ने जल और स्थल में विकसित वंत से युक्त तथा पांच वर्ण वाले पुष्प के बादलों की विकुर्वणा कर घुटनों की ऊंचाई जितने फूलों की वर्षा की। वे दिक्कुमारियां भी गीत गा रही थीं। इसके बाद पूर्व दिशा के रुचक प्रदेशों में रहने वाली नंदा, नंदोत्तरा, आनन्दा, नंदिवर्धना, विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता-ये आठ दिक्कुमारियां वहां आईं। दिक्कुमारियों ने मरुदेवा मां को भयभीत न होने के लिए कहा। वे दिक्कुमारियां माता सहित तीर्थंकर ऋषभ के सामने पूर्वदिशा में दर्पण लेकर खड़ी हो गईं और गीत गाने लगीं। इसी प्रकार दक्षिण रुचक प्रदेशों में रहने वाली समाहारा, सुप्रदत्ता, सुप्रबुद्धा, यशोधरा, लक्ष्मीवती, भोगवती, चित्रगुप्ता और वसुंधरा आदि आठ दिक्कुमारियां संसार को आनंद देने वाले ऋषभ और मरुदेवा के समक्ष दक्षिण दिशा में भृगार लेकर खड़ी हो गयीं। पश्चिम रुचक प्रदेशों में रहने वाली इलादेवी, सुरादेवी, पृथ्वी, पद्मावती, एकनासा, नवमिका, सीता और भद्रा-ये आठ दिक्कुमारियां माता सहित भावी तीर्थंकर के पश्चिम दिशा में पंखें लेकर खड़ी हो गयीं और गीत गाने लगीं। उत्तर रुचक प्रदेशों में रहने वाली अलंबुसा, मिश्रकेशी, पुण्डरीकिनी, वारुणी, हासा, सर्वप्रभा, श्री, ही आदि आठ दिक्कुमारियां बालक सहित मरुदेवा माता के उत्तरदिशा में हाथ से चंवर डुलाते हुए गीत गाने लगीं। इसके पश्चात् विदिशा में रहने वाली चित्रा, चित्रकनका, सत्तारा और सौदामिनी-ये चार विद्युत्कुमारियां जननी सहित त्रिभुवनबंधु ऋषभ की चारों विदिशाओं में हाथ में दीपक लेकर खड़ी हो गयीं और गीत गाने लगीं। इसके बाद मध्य रुचक में रहने वाली रुचका, रुचकांशा, सुरुचा और रुचकावती आदि चार दिक्कुमारियां पास आकर कोई रुकावट नहीं है, ऐसा जानकर, भव्यजनों के लिए कमलवन के मंडनस्वरूप भगवान् ऋषभ की चार अंगुल वर्ण्य गर्भनाल काटने लगीं। एक विवर खोदकर नाभिनाल उसमें रखकर उसे रत्न और हीरों से भरने लगी। फिर हरियाली से उस पर वेदी बांधने लगी। तीर्थंकर के जन्म-भवन के पूर्व दक्षिण और उत्तर दिशा में तीन कदलीगृहों की विकुर्वणा करके उसके बीच में तीन चन्द्रशालाओं की विकुर्वणा की। वे दिक्कुमारियां तीर्थंकर को हाथ में लेकर और माता को हाथों का सहारा देकर दक्षिण कदलीगृह के चतुःशाल के सिंहासन पर बिठाकर शतपाक और सहस्रपाक तैल से उनके शरीर का अभ्यंगन किया फिर सुरभित गंधोदक से उनके शरीर का उदवर्तन किया। इसके बाद तीर्थंकर भगवान् को हाथों में लेकर तथा माता को भुजाओं से सम्यक् रूप से पकड़कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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